अफगानिस्तान की सत्ता पर कट्टर आतंकवादी व धर्मान्ध इस्लामिक संगठन तालीबान के कब्जे ने पूरी दुनिया के मानवाधिकार, नारी स्वतंत्रता और प्रजातांत्रिक मूल्यों के पैरोकार में खलबली मचा दी है। भारत सहित दुनिया परेशान है कि उस देश से कैसे निबटें जिसके सरकार में प्रधानमंत्री और दो उपप्रधानमंत्री सहित केबिनेट के 14 सदस्य संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद द्वारा घोषित इनामी आतंकवादी हैं। लड़कर हराने की हिम्मत जुट नहीं रही क्योंकि दुनिया का सबसे बड़ा लड़ाका अमेरिका उससे 20 वर्षों की लड़ाई हार हथियार छोड़ अभी-अभी भागा है। 


बात-चीत से आधुनिक काल में इस मध्यकालीन सोच वाले तालीबान के चाल-चरित्र को सुधारना एक विकल्प हो सकता है पर उसके लिए भी पहले तो इस आतंकवादी सरकार मान्यता देनी होगी जिसके लिए चीन, पाकिस्तान‌ और कतर जैसे  कुछ देशों को छोड़  भारत सहित  अधिकतर देश अभी तैयार नहीं है। Wait and Watch की नीति अपनाई गई है। फिलहाल ये तरीका अपनाया गया है की वैश्विक मंचों से तालीबान सरकार को नैतिकता का प्रवचन दिया जाय। यानि पत्थर पर फूल उगाना है।


तदनुरूप UNO की सुरक्षा परिषद ने तालिबान से हिंसा को समाप्त करने, नागरिकों के जीवन को बचाने और मानवीय कार्यकर्ताओं को सख्त जरूरत वाले लोगों तक सुरक्षित और निर्बाध पहुंच की अनुमति देने का आग्रह किया। वहीं भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में हुई BRICS सम्मेलन में "Delhi Declaration" द्वारा तालीबानी सरकार से हिंसा से बचने और शांतिपूर्ण तरीकों से स्थिति को सुलझाने का आह्वान किया।इन नेताओं ने अफगानिस्तान में स्थिरता, नागरिक शांति, कानून और व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए एक समावेशी अंतर-अफगान वार्ता का भी आह्वान किया।


Rise in India security concern


भारत के लिए तालीबान सरकार का बनना मुसीबत का नया सबब लेकर आया है। अफगानिस्तान के ही दुर्दान्त आतंकवादी अल-कायदा ने तो तालीबान विजयी के फौरन बाद अगला टारगेट भारत के कश्मीर घोषित कर दिया।गनीमत है कि यह संगठन नव निर्मित सरकार में शामिल नहीं है। पर सरकार में शामिल सबसे ताकतवर गुट हक्कानी पर पाकिस्तान का दबदबा है। 


पाकिस्तान ने जहां तालीबान को सत्ता पर कब्ज़ा जमाने से सरकार बनाने तक में मदद की है वहीं चीन ने एक बड़ी मदद राशि की सहायता दे तालीबानी सरकार का गुडविल हासिल कर लिया है। ऐसे में भारत विरोधी चीन व पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान की तीन देशों की तिकड़ी बनने की पूरी संभावना बन गई है।


लश्कर-ए-तैयबा और जैश ए मोहम्मद जैसे कश्मीर को लेकर सक्रिय भारत विरोधी आतंकवादी संगठनों को नया पनाहगाह अफगानिस्तान के रूप में मिल सकता है। यद्यपि तालीबान सरकार के प्रवक्ता ने अपनी धरती का इस्तेमाल दुनिया में कहीं भी आतंकवादी कार्रवाई करने के लिए नहीं देंगे जैसी बातों से भारत की चिंता कम करने की कोशिश की है। परन्तु साथ ही भी कह दिया कि कहीं भी इस्लाम के हितों की आवाज़ उठाते रहेंगे। आखिर आतंकवादी सरकार के आश्वासन कितने विश्वसनीय हो सकते हैं? भारत को अधिक सावधान रहना होगा।


भारत का तालीबानी सरकार पर प्रभाव भले कम है पर  अफगानिस्तान के आम नागरिकों में भारत की छवि काफी अच्छी है। भारत के अरबों डॉलर के तकरीबन 400 प्रोजेक्ट  अफगानिस्तान में चल रहे हैं।  अधिकतर सड़क, बिजली, स्कूल और अस्पताल निर्माण से संबंधित हैं। इन पर प्रश्न चिन्ह लग गये हैं। वहां के शिक्षामंत्री का बयान आया है शासन के लिए शिक्षा की जरूरत ही नहीं सिर्फ दिल साफ होना चाहिए। तब तो परिवहन मंत्री का भी ये बयान आ सकता है कि अच्छी तोपों के लिए अच्छी सड़कें आवश्यक नहीं हैं खराब सड़के भी काफी हैं और स्वास्थ्य मंत्री कह सकते हैं अस्पताल की भी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि यहां घायल होते नहीं और dead bodies का कोई इलाज नहीं होता।


वैसे तालीबानी सरकार के प्रवक्ता सुहैल खान ने कहा है कि "भारत यहां अपनी अधूरी निर्माण योजनाओं को पूरा कर सकता है। उसे पूरा करना भी चाहिए।" पर भाई साहब , ये काम पूरे तभी हो सकते हैं जब वातावरण भयमुक्त एवं सुरक्षित हो। जब आपकी सरकार के नवनियुक्त उपप्रधानमंत्री मुल्ला बरादर जिंदा हैं इसके लिए खुद वीडियो रीलिज करनी पड़ती है ऐसे हालात में यह गांरटी कौन देगा?


भारत की दुविधा है कि विश्व के  सबसे बड़े (जनसंख्या के हिसाब से) प्रजातांत्रिक देश होने के नाते वो अफगानिस्तान के अप्रजातंत्रिक सरकार को मान्यता दे नहीं सकता दूसरी तरफ कश्मीर की सुरक्षा और अफगानिस्तान में अपने फंसे प्रोजेक्ट को लेकर इसकी पूरी उपेक्षा भी नहीं कर सकता । इसलिए भारतीय विदेशमंत्री जयशंकर ने कहा अफगानिस्तान में सरकार नहीं एक "व्यवस्था" कायम हुई है। ऐसे में भारत कतर और रूस जैसे अपने मित्र देशों के माध्यम से अफगानिस्तान की इसी कथित "व्यवस्था" से संपर्क साध अपने हितों को सुरक्षित रखने का प्रयास कर रहा है ।


इसी तरह तालीबान के कब्जे के बाद कथित तिकड़ी के विरुद्ध  हिंद- महासागर में चीनी वर्चस्व को चेक करने के लिए QUAD( Quadrilateral Security Dialogue) की सक्रियता बढाई जा रही है।भारत, जापान, आस्ट्रेलिया और अमेरिका इसके सदस्य हैं और यह गुट 2007 से ही कायम है। सितंबर में ही इसकी बैठक अमेरिका में होने वाली है। 


यद्यपि अफगानिस्तान में हुई पराजय से देश- विदेश में भद् पिटने के बाद और बढ़ते चीनी प्रभुत्व से अमेरिकी प्रशासन की भारत के साथ नजदीकियां बढ़ने वाली है। तथापि भारत को अफगानिस्तान को लेकर खुद पर भरोसा रख नीतियां बनानी होगी। क्योंकि अफगानिस्तान को मंझधार में छोड़ भाग जाने से अमेरिका की विश्वसनीयता संदिग्ध हो चुकी है।


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