खंडन - इस लेख में किये गए व्यंग्य, लेख की रोचकता बनाये रखने के लिये ही किया गया । यदि फिर भी किसी दिल को चोट पहुँचती है तो उसके लिये Indianspolitical.com खेद व्यक्त करता है।
2024 के आम चुनाव में 400 पार करने का एक नेता का सपना क्या टूटा लगता है सरकार चलाने का कौशल और आत्मविश्वास दोनों ने साथ छोड़ दिया है ?तभी तो 100 दिनों की तैयार एजेण्डे की बात करने वाले को एक के बाद एक ताबड़तोड़ अपने फैसले को बदलने पड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि पार्टी की 63 सीट ही नहीं कम हुई मानों 63% कॉन्फिडेंस चला गया। इसके पीछे सत्ता फिसलने का डर भी है जो निरंतर मजबूत हो रहे विपक्ष से ही नहीं बल्कि सहयोगी दलों और अपनी पार्टी के अन्दर उठते बागी सुरों और पैतृक संगठन आरएसएस की नाराजगी से डगमगा रही है।
जनता की जरूरत नहीं समझने वाले को आभास हो गया है जनता को भी उनकी जरूरत नहीं रही है। कहीं जूते फेंके जा रहे हैं तो कहीं काले झण्डे दिखाये जा रहे हैं तो कहीं माफी मांगनी पड़ रही है। यही कारण है कि कहाँ One Nation One Election की बात कर रहे थे अब सिर्फ 4 राज्यों की विधानसभा का चुनाव एक साथ कराने की तक की हिम्मत नहीं हो पाई। ये आत्मविश्वास की कमी ही है पिछले दस सालों से 24 घंटे चुनावी मोड में रहने वाले हाल फिलहाल तक हरियाणा और कशमीर के चुनाव छोड़ जनता के पैसे पर विश्व भ्रमण में लगे रहे ।
वैसे यह खोये हुए आत्मविश्वास को जगाने का प्रयास भी हो सकता है जो विदेशों में होने वाली पद के प्रति स्वभाविक वाहवाही से कदाचित लौट सकती है। यह भी कहा जाता है कि चुनाव लड़ने वाले उनकी पार्टी के नेतागण भी चाहते हैं कि वो उनका प्रचार करने ना आयें क्योकि एक तो पहले की तरह सुनने को भीड़ नहीं आती है दूसरे फायदे से अधिक नुक्सान का खतरा है। फिर तो विदेश भ्रमण के निर्णय को गलत नहीं कहा जा सकता। पर कहीं ऐसा तो नहीं कि अजैविक शरीर ,भारत का, क्षमा करेंगे भारत में , काम तमाम कर पुनः प्रकट होने के लिये किसी अन्य उपयुक्त धरा की तलाश में है?
Changing decisions, falling credibility
इस सरकार के पिछले दो कार्यकाल की उपलब्धियां चाहे कुछ रही हों या नहीं रही हों पर इसकी मजबूती और साख को लेकर कोई शक नहीं था। कोई भी सरकारी विधेयक को स्टैण्डिग कमिटी में भेजने की जरूरत नहीं पड़ती थी। लोकसभा में असंदिग्ध बहुमत के बल पर आसानी से संसद में पास हो जाया करती थी। राज्यसभा में बहुमत नहीं रहने पर भी मजबूती का आलम यह था कि सभापति महोदय यहां फंसे विधेयक को बहस या बिन बहस के ध्वनि मत से ही पास करवा देते थे। तीन कृषि कानूनों की रचना इसी तरह हुई थी। यद्यपि इन तीन कानूनों को यूपी के आसन्न चुनाव को देख कर रद्द करने पड़े तथापि यह सरकार की तंगदिल मजबूती ही तो थी जिसने लगभग 700 से अधिक किसानों को आंदोलन के दरम्यान मरने दिया ।
मोदी सरकार 3 की स्थिति ऐसी नहीं है। यह मजबूत सरकार की बजाय मजबूर सरकार दिख रही है। क्योंकि इस सरकार ने लगातार अपने कई महत्वपूर्ण फैसले बदले हैं जिससे उसकी काफी फजीहत हो रही हैं। Waqf amendment Bill 2024 को लोकसभा में पेश करना और इसे मतदान पर न रख कर संयुक्त संसदीय समिति में भेजना इस सरकार का एक ऐसा ही फैसला रहा है।
इस बिल का विरोध विपक्ष तो कर ही रहा है उसके गठबंधन के दल भी सहमत नहीं है ंं। इस संशोधन विधेयक में केन्द्रीय वक्फ परिषद में गैर मुस्लिमों की नियुक्ति और सीईओ पद पर मुस्लिम अनिवार्यता खत्म करने और विवादों के निपटारे की अंतिम शक्ति सुप्रीम कोर्ट की बजाय कलक्टर के हाथ में देने की व्यवस्था को All India Muslim Personal Law Board, वक्फ की संपत्ति जो मुसलमानों के स्वैच्छिक दान से बनी है, उसे सरकार द्वारा हड़पने की साजिश मानता है। यद्यपि यह विधेयक तकनीकी रूप से जीवित है पर इसका यूं फंस जाना सरकार की लोकतांत्रिक प्रणाली में विश्वास से अधिक उसकी विवशता दिखा रही है।
इसी प्रकार आलोचना से घबरा कर सरकार ने Broadcasting Services (Regulation) Bill 2024 का अपना मसौदा वापस ले लिया। इस बिल द्वारा डिजिटल मीडिया को पूरी तरह सरकारी नियंत्रण में लाने की योजना थी। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बिलकुल खिलाफ था। इसलिये इस बिल की वापसी को, बहुमत से चूकने का एक सुखद परिणाम माना जा सकता है।
इस सरकार की सबसे जबरदस्त किरकिरी Lateral Entry मामले को लेकर हुई। सरकार ने संघ लोक सेवा आयोग को महज तीन दिनों के भीतर 45 वरिष्ठ नौकरशाही पदों पर पीछे से भर्ती के लिये मांगे गये आवेदन को रद्द करने का निर्देश देना पड़ा। विपक्षी पार्टी के नेताओं सहित एनडीए के कुछ सहयोगी दलों जैसे जनता दल (यूनाइटेड) और लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने भी इस कदम का विरोध किया। क्योंकि सरकार के सीनियर पदों पर भर्ती की इस नीति मेंअनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के उम्मीदवारों के लिए आरक्षण की व्यवस्था नहीं थी। इस प्रकार कुशलता के नाम पर अपने लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर बैठाने की यह शॉर्ट कट व्यवस्था जो 2018 से चली आ रही थी इस बार सफल नहीं हो सकी।
देश में पहले भी गठबंधन की सरकार रही हैं वो मजबूती के साथ सालों साल चली है ंं फिर चाहे स्व० अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार हो या डा० मनमोहन सिंह की। इस सरकार को बने चंद महीनों में ये हालत अच्छी बात नहीं है। क्योंकि सरकार चाहे गठबंधन की ही क्यों ना हो उसे कमजोर नहीं दिखना चाहिए इसका बुरा असर ना केवल राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय साख पर पड़ता है बल्कि इससे प्रशासनिक कुशलता भी प्रभावित होती है। यह सही है कि यह गठबंधन की वैशाखियों पर टिकी होने के कारण पहले की तरह मजबूत नहीं है पर सहयोगी के परामर्श लेकर काम तो कर सकती ही है।
ऐसा नहीं है कि गठबंधन वाली ये सरकार नहीं चल सकती है पर इसके लिये सुपर अहंकार की मानसिकता का त्याग करना होगा। साथ ही इस सच्चाई से एकाकार होना पड़ेगा कि उनकी पार्टी को बहुमत नहीं है ऐसे में अब ना तो मन की बात चलेगी और ना ही बात मन की मर्जी। साथ ही अब सब को साथ लेकर चलने के सिर्फ बोल वचन से भी काम नहीं चलने वाला बल्कि उसे अमल में लाना ही होगा।
अन्यथा काश्मीर हो या महाराष्ट्र या फिर यूपी पार्टी में बगावत के चौतरफा सुर तो उठेंगे ही साथ ही सहयोगी दलों की गठबंधन छोड़ने का खतरा बना रहेगा और पैतृक संगठन आरएसएस भी कथित देवत्व का मजाक और जातीय जनगणना का समर्थन कर सत्ता को डगमगाते रहेंगे। जबकि सत्ता के एकदम करीब पहुंचा मजबूत विपक्ष तो अवसर की तलाश में तैयार बैठा ही है।फिर आप चाहे भगवान् गणेश की पूजा कहीं भी जाकर कर लें सत्ता का अंत समयपूर्व होने से रोक नहीं सकते।