अयोध्या विवाद पर बहुप्रतीक्षित सुप्रीम कोर्ट का फैसला आखिरकार 9 नवम्बर 2019 को आ ही गया। इस फैसले के द्वारा विवादित जमीन न तो  सुन्नी वक्फ बोर्ड को,न ही  निरमोही अखाड़े को और न ही हिन्दू महा सभा  को बल्कि 'भगवान राम 'को एक कानूनी व्यक्ति मानते हुए दी गई ।  इस फैसले द्वारा सुप्रीम कोर्ट ने डेढ़ सौ साल से भी अधिक समय से चल रहे उस कानूनी विवाद का पटाक्षेप कर दिया जिसकी चरम परिणति बाबरी मस्जिद के विध्वंस और साम्प्रदायिक दंगे के रूप में हुई थी।

     Ayodhya - no justice, only solution!




सुप्रीम कोर्ट  ने अपने एक हजार से अधिक पन्ने के निर्णय में एएसआई (आर्कियोलोजी सर्वे आफ
इण्डिया)की खुदाई की रिपोर्ट को काफी महत्व दिया और इस बात को कई बार दुहराया कि भूमि विवाद का निर्णय कानून के आधार पर होगा  न कि आस्था के आधार पर। तदनुसार सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा है कि बाबरी मस्जिद किसी भी मन्दिर को तोड़ कर नहीं बनी थी। यह एक भयंकर सच्चाई है ! क्योंकि विश्व हिन्दू परिषद और बीजेपी द्वारा चलाए राम मंदिर आन्दोलन का मूलाधार ही ये था कि मुगल बादशाह बाबर के आदेश पर मीर बाकी ने 1528 ई० में राम मंदिर तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनाई थी।


 इसी आधार पर हिन्दू भावना को उन्मादी बनाया गया, मुसलमानों को गालियां दी गई और दंगे हुए हजारों जानें गई और एक संकीर्ण हिन्दू वादी सोच वाली  राजनीतिक पार्टी सत्ता का सोपान  चढती चली गई। यह सब हो गया एक झूठी अवधारणा पर चलाये गए  आन्दोलन द्वारा। अब वास्तविकता क्या होगी! कल का बाबरी मस्जिद किसी मन्दिर तोड़ कर नहीं बनी थी पर आने वाला राम मंदिर मस्जिद  तोड़ कर बना होगा। पता नहीं इस बात से सभी हिन्दू खुश होंगे कि नहीं पर औरंगजेब की आत्मा अवश्य खुश होगी कि चलो कुछ हिन्दुओं ने भी उसकी विचारधारा पर चलना शुरू कर दिया है।
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सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी कहा 22 दिसम्बर 1949 में बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखना और 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़ना दोनों  गैरकानूनी कार्य  थे।  यह माना कि सुनियोजित साजिश के तहत मूर्तियां रखी गई थी जिसकी चरम परिणति मस्जिद विध्वंस के रूप में हुई। इन गैरकानूनी कृत्यों द्वारा मुस्लिम समाज के 450 सालों से मिले वाजिब हक से वंचित करने का अपराध किया गया। स्पष्ट है कि मिथ्या आधार पर चलने वाला आन्दोलन की प्रकृति खुराफाती थी तो उसके कृत्य आपराधिक और यह मामला अभी अन्य  न्यायालय में लंबित है।


सुप्रीम कोर्ट ने फैसले कोआगे बढाते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट  के द्वारा विवादित परिसर को तीन बराबर हिस्से में बांटने के फैसले को रद्द कर दिया। इसके लिए सम्पूर्ण विवादित परिसर, मस्जिद के अन्दर और बाहर को एक इकाई माना गया। शिया वक्फ बोर्ड के मालिकाने का दावा खारिज कर दिया और राम जन्मभूमि स्थान को कानूनी व्यक्ति मानने से इंकार कर दिया। रामलला विराजमान को कानूनी  पक्षकार मानते हुए निर्मोही अखाड़ा की सेबियट के दावे को अस्वीकार कर दिया। अब दो ही पक्ष बचे रह गए एक  'सुन्नी वक्फ बोर्ड' और दुसरे 'रामलला विराजमान'! यही विवाद का यक्ष प्रश्न था।


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इस प्रश्न पर निर्णय से पहले सुप्रीम कोर्ट ने    "न्याय, समता और सदविवेक" के सिध्दांत की  विशद चर्चा की और समझाया कि जब किसी विवाद के समाधान में कानून पर्याप्त नहीं होता तो "न्याय,समता और सदविवेक" के आधार पर निर्णय लिए जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इतिहासकार आर एस शर्मा, डी एन झा, सूरजभान और अतहर अली की उस रिपोर्ट को जिसमें कहा गया था कि 1850 ई० के पहले विवादित परिसर को राम जन्मभूमि नहीं माना जाता था और न ही बाबरी मस्जिद किसी मन्दिर को तोड़ कर बनाई गयी थी  को एक मत ही माना सबूत नहीं।

साथ ही 17 वीं से 19 वी सदी के यूरोपीय यात्रियों यथा टिपेनथेलर, म़ोन्न्री मार्टिन, पी कार्नेग, एडवर्ड थार्नटन और विलियम फिन्च आदि के भारत यात्रा की उन वृतांत की भी चर्चा की जिनमें कहा गया है कि उन समयों में भी विवादित परिसर में हिन्दू पूजा करते थे और उनका विश्वास था कि भगवान राम का जन्म वहीं हुआ था। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा विवादित परिसर का किसी प्रकार का बंटवारा स्थायी शान्ति और सौहार्द  नहीं ला सकता। इन सब बातों पर विचारते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिया कि सुन्नी वक्फ बोर्ड इस बात के प्रमाण नहीं दे सका कि 1856 के पहले  बाबरी मस्जिद में नमाज पढ़ी जाती थी  अतएव उसका दावा विवादित परिसर पर निर्विवादित रुप से सिध्द नहीं होता।

दुसरी तरफ राम चबूतरे और सीता रसोई पर राम लला की पूजा निरंतर पूजा के प्रमाण मिलते हैं और साथ ही एएसआई द्वारा खुदाई में मिले अवशेष गैरइस्लामिक हैं और मस्जिद किसी खाली मैदान में न बनी थी ऐसे में हिन्दुओं का यह विश्वास कि भगवान राम का जन्म उसी स्थान(मस्जिद के भीतर) पर हुआ होगा अधिक वास्तविक लगता है। अतएव विवादित परिसर पर सुन्नी वक्फ बोर्ड के दावे को खारिज किया जाता है और मस्जिद वाले स्थान सहित सम्पूर्ण परिसर " रामलला विराजमान" को दी जाती है और भारत सरकार को आदेश देती है कि 3 महीने के अन्दर एक ट्रस्ट बना कर राम मंदिर बनाने की जिम्मेदारी उसे सौंप दे।



फिर  संविधान की धारा 142 जो सुप्रीम कोर्ट को विशेषाधिकार देता है वह किसी विषय पर न्याय को पूरा करने के लिए कोई भी आदेश दे सकता है, का उपयोग करते हुए केन्द्र और यूपी सरकार को आदेश दिया कि सुन्नी वक्फ बोर्ड को विवादित परिसर से बाहर पर अयोध्या में ही किसी महत्वपूर्ण स्थान पर 5 एकड़ जमीन का मालिकाना हक दे और साथ ही केन्द्र सरकार को यह भी आदेश दिया कि निर्मोही अखाड़ा को बनने वाले ट्रस्ट में शामिल करे। सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की बेंच ने यह ऐतिहासिक फैसला सर्वसम्मति से दिया और इस फैसले से यह इतिहास भी बना कि पहली बार यह नहीं बतलाया गया कि जजमेंट का कौन सा हिस्सा  किस जज ने लिखा।इसके पीछे जजों की कोई अच्छी सोच ही रही होगी किसी प्रकार का डर या भय तो कतई नहीं।
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सप्रीम कोर्ट के इस फैसले का सम्मान तो हो रहा है, पर कई सवाल भी खड़े हुए हैं। इसका मुख्य कारण यह रहा मालिकाना हक तय करने में सुप्रीम कोर्ट ने कानूनी आधार की बातें तो कि पर फैसला आस्था और विश्वास पर कर दिया। आर्कियोलोजी एक पूर्ण विज्ञान नहीं है  बल्कि सामाजिक विज्ञान है,जिसमें अनुमान ही किया जा सकता। निर्विवादित दावा उनको सिध्द करना था जो कब्जा लेना चाह रहे थे न कि उनको जिनका कब्जा था।


 आखिर कानून के शासन में गैर कानूनी तरीके से लक्ष्य भला कैसे पाया जा सकता है ! क्या इससे भविष्य में ऐसे ही गैर कानूनी आन्दोलन को प्रोत्साहन नहीं मिलेगा! सही है कि मुस्लिम पक्ष 1856 के पहले मस्जिद में नमाज पढना नहीं साबित कर सका पर यह कैसे मान लिया गया अकबर, शाहजहाँ,औरंगजेब या फिर अवध के शक्तिशाली नवाब के शासनकाल में किसी महत्वपूर्ण मस्जिद में नमाज की बजाय पूजा अर्चना की जाती थी।



यहां प्रोफेसर फैजान मुस्तफा की यह राय अधिक सही लगती है कि सुप्रीम कोर्ट मस्जिद के स्थान का कब्जा सुन्नी वक्फ बोर्ड को देता और फिर धारा 142 के विशेषाधिकार का उपयोग कर वह कब्जा वापिस लेकर विवादित परिसर से बाहर जमीन उपलब्ध करा देता तो इससे आस्था से उत्पन्न संकट का समाधान भी हो जाता और कानून रूपी लाठी भी न टूटती। यहां उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले द्वारा दीर्घकालीन शान्ति और सौहार्द स्थापित करना  भी चाह रही थी।


अतएव इस फैसले को  कानूनी इंसाफ के तौर पर ही नहीं बल्कि संकट के समाधान के रूप में  लेना चाहिए। अभी तक भारतीय मुसलमानों ने इस निर्णय को जिस धैर्य और शांति से स्वीकार किया है वह यही सिध्द करता है कि वे भी इंसाफ से अधिक समाधान ही चाहते थे। यदि ऐसा है तो ये  समाधान भी एक इंसाफ ही है।