2022 के पांच राज्यों के चुनाव परिणाम आ गए हैं। जनमत का आकलन कर किए गए एक्जिट पोल गलत साबित हुए हैं पर सत्ता की इच्छा भांप कर किए गए exit poll सही निकलें हैं। सिर्फ प्याज के दाम बढ़ने से उत्पन्न सत्ता बदल देने वाली anti incumbency अपने ऐसे तमाम कारणों से full swing में होने के बावजूद कांग्रेस शासित पंजाब को छोड़ बीजेपी शासित राज्यों में सत्ता परिवर्तन करने में हार गई। 


समाजशास्त्री परेशान हैं कि जनता ने कैसे पेट्रोल, डीजल, गैस आदि की महंगाई, प्रचंड बेरोजगारी, गन्ना के फसल के एमएसपी न मिलने, महंगी खाद और किसानों का दमन और छुट्टा जानवर की समस्या से आह्लादित और कोरोना महामारी में हुए कुप्रंधन से लाखों की जान गंवाने से अभिभूत होकर बीजेपी की झोली को वोटों से भर दिया।जनता की नाराजगी और वोटों के बढ़ते प्रतिशत के बीच का यह अद्भुत तारतम्य पहले कभी देखा नहीं गया। 


वे इसका समाधान केन्द्र की 5 किलो अनाज वाली लाभार्थी योजना या फिर हिन्दुत्व की लहर में ढूंढ रहे हैं। परन्तु ये योजना तो सिर्फ चुनाव तक के लिए ही है ये बात तो जनता को पता थी ,रही लहर की बात वो तो सिर्फ सत्ता विरोध की चलती दिख रही थी। दरसअल इन बातों को चुनावी संवाद में लाने का वास्तविक उद्देश्य जनमत हासिल करने की बजाय संभावित परिणाम को न्यायोचित ठहराना था। 



राजनीतिक विश्लेषक, अखिलेश यादव सहित विपक्ष के नेताओं की सभाओं में उमड़ती भीड़, बीजेपी नेताओं की सभा में खाली कुर्सियां,भीड़ न आने के कारण गृहमंत्री का रोड शो और प्रधानमंत्री का जन सभा छोड़ देना और बीजेपी के नेताओं का जनता द्वारा खदेड़े जाने की दृश्यों में निहितार्थ ढ़ूढ़ते् रहेेे पर चुनाव परिणाम ने "रहस्यमयी ताकत" के बल पर "आयेगा तो मोदी ही" के विश्वास करने वालों को सही साबित कर दिया।


यह रहस्यमयी ताकत भी गजब की बला है जो ये तय कर देती है और कब और कहां जीतना है और कहां हारना है। इतना ही नहीं समाज के जिस वर्ग में बीजेपी के प्रति नाराजगी होती है वहीं से बीजेपी के वोट प्रतिशत में वृद्धि करा देती है। चाहे यूपी में कृषि कानून से नाराज जाटों का वोट प्रतिशत हों या गुजरात में नोटबंदी और जीएसटी से परेशान पटेलों का। इसी ताकत के भरोसे 2024 के चुनाव जीत लेने की मंशा अभी से व्यक्त की जा रही है। 



श्री लालकृष्ण आडवाणी की तरह आज अखिलेश यादव, सुश्री ममता बनर्जी, शिवसेना आदि द्वारा EVM पर सवाल खड़े करना बेवजह भले लग रहा हो, पर  EVM का जारी रखना भी कोई समझदारी तो नहीं ही है। जिन विकसित देशों में EVM का जन्म हुआ वहां भी इसका उपयोग लोकतांत्रिक पारदर्शिता के मद्देनजर बंद कर दिया गया है।भारत में हर चुनाव से पहले, बीच में और अंत में EVM को लेकर अंतहीन सवाल उठते रहे हैं।


आखिर विपक्षी पार्टियां द्वारा रतजगा कर Strong Room की रखवाली के दृश्यों से भारतीय लोकतंत्र की छवि दुनिया में मजबूत होती हो ऐसा भी तो नहीं है! पहले बूथ कैप्चरिंग दिखती थी, पर इसमें न कुछ दिखता है और ना ही बचता है। क्या फर्क पड़ता है चुनाव परिणाम 12 बजे दिन की बजाय 12 बजे रात को आये। महत्वपूर्ण सवाल इसके विश्वसनीय होने और दिखने से है जो अब नहीं हो रहा है। 



EVM को लेकर सन्देह है पर केन्द्रीय चुनाव आयोग के लिए कोई सन्देह नहीं रहा। ये तो वहीं जा बैठा है जहां भारत की मुख्य मीडिया पहले से बैैैठी हुई है। चुनाव पूर्व PMO द्वारा उसे तलब किये जाने से ही यह सन्देह उत्पन्न हो चुका था। इसके अलावा बीजेपी के बड़े से बड़े नेताओं द्वारा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए उग्र बयानबाजी और समाज के पुराने जख्मों को कुरेदती भाषणों पर इस आयोग की नजरदांजी खलने वाली रही। इतना ही नहीं ऐन चुनाव के दिन प्रधानमंत्री के चुनावी भाषणों और इंटरव्यू का मीडिया पर अनवरत प्रसारण चुनावी आचार संहिता और चुनाव आयोग की निस्पक्षता को दोनों को तार-तार करता नजर आ रहा था।


एक स्वस्थ प्रजातंत्र के लिये स्वतंत्र व पारदर्शी चुनावी प्रक्रिया और स्वतंत्र एवं निस्पक्ष चुनावी संस्था दोनों का होना आवश्यक है। भारतीय प्रजातंत्र के लिए समस्या ये नहीं है कि ये दोनों समस्या आने वाली है बल्कि समस्या ये है कि  ये समस्या आ चुकी है। इसका शीघ्र समाधान होना आवश्यक है नहीं तो व्यर्थ के चुनाव और खर्च का कोई मतलब नहीं। इसलिए One nation one election ही कर देना काफी नहीं होगा बल्कि अगला चुनाव अगर जरूरत रही तो "अमृत काल" समापन के बाद हो ऐसी घोषणा भी कर देनी चाहिए। 

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