Supreme intervention in the farmer movement.
केन्द्र के थोपे गए तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आंदोलन अभी भी जारी है । 12 जनवरी के सुप्रीम कोर्ट द्वारा इन कानूनों के क्रियान्वयन को स्थगित करना और सरकार और किसानों में बातचीत करने हेतु कमिटी बनाने के आदेश से भी सरकार और आन्दोलनरत किसानों के बीच के गतिरोध खत्म हों ऐसा नहीं हुआ है। दरअसल इन आदेशों से सुप्रीमकोर्ट की प्रतिष्ठा बढ़ी नहीं है बल्कि फजीहत ही हो रही है।क्योंकि चार सदस्यो की जो समिति सुप्रीम कोर्ट ने बनाया है उस पर आन्दोलनरत किसान संगठनों का भरोसा ही नहीं है और उन्होंने इसके बहिष्कार की घोषणा भी कर दी ।
भरोसा होता भी कैसे! कमिटी के चार के चार सदस्यों का इन कानूनों का समर्थक होना जगजाहिर है ।
इसकी संपुष्टि इससे भी हो गई जब किसानों के विरोधी तेवर देख एक सदस्य श्री भूपेन्द्र सिंह मान ने कमिटी से खुद को अलग कर लिया जबकि शेष तीन सदस्यों ने ये घोषणा कि इन कानूनों में कई कमियां हैं फिर भी इन्हें रद्द किया गया तो अगले सौ साल तक कोई सरकार ऐसा हिम्मत नहीं कर पायेगी। स्पष्ट है कि इन कानूनों को रद्द करने के पक्ष में ये कमिटी पहले से ही नहीं है जबकि यही किसानों की प्रमुख मांग है।
कमिटी द्वारा सौ साल की बात कहने का तात्पर्य शायद ये रहा होगा कि कमियों से लबालब भरे ऐसे कानूनों को लाने की हिम्मत सिर्फ मोदी सरकार ही कर सकती है । यदि ऐसा ही है तो सौ साल क्यों हजार साल भी कहा जा सकता था।
भारत में सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति कानून की स्थापित प्रक्रिया तक सीमित है जिसका मतलब है कानून बनाने वाले को कानून बनाने वाले की शक्ति थी कि नहीं और उसने इसके लिए स्थापित प्रक्रिया का पालन किया या नहीं। कानून अच्छा है या बुरा ये तय करने का अधिकार सुप्रीम कोर्ट को नहीं है। यही कारण है कि किसानों ने कोर्ट के शरण में न जाकर आन्दोलन का रास्ता अपनाया है।
जहां तक प्रक्रिया की बात है , तो पूरे देश ने देखा कि राज्यसभा में ये बिल किन हालात में पास किये गये । इन विधेयकों को न तो स्थायी समिति में भेजा गया न ही इस पर मतविभाजन करवाये गए।हो हंगामे के बीच इसे ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। फिर भी कानूनी प्रक्रिया तो पूरी हो ही गई।
अच्छा होता यदि सुप्रीम कोर्ट, आनन-फानन में लाये इन कानूनों की उसी गति से संवैधानिकता की जांच कर देता तो शायद विवाद का समाधान ही हो जाता। क्योंकि केन्द्र ने उस कृषि विषय पर ये कानून बनाये हैं जो संविधानत: राज्यसूची के विषय हैं। सिर्फ विपण्ण पर केन्द्र के अधिकार अवश्य हैं पर ये तीनों कानून कृषि को सांगोपांग रुप से प्रभावित करने वाले हैं सिर्फ़ विपण्न नहीं। कमिटी बनाने और उसे दो महीने का वक्त देने से आन्दोलनरत किसानों को राहत नहीं मिली उल्टे सरकार को किसानों को टालते रहने का दो महीनें का वक्त मिल गया।
सुप्रीम कोर्ट, न तो सरकार गई थी और न ही आन्दोलनरत किसान। कुछ लोगों ने किसानों के धरने के विरुद्ध याचिका डाली थी ,शेष सुप्रीम कोर्ट का आन्दोलनरत किसानों की परेशानी देख लिया गया स्वत:संज्ञान था। समाधान निकले या न निकले पर सरकार के सर्वोच्च स्तर से बोले गए इस झूठ का पर्दाफाश अवश्य हो गया जिसमें कहा गया था कि ये कृषि कानून 20 वर्षों की बातचीत का नतीजा है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसानों से बातचीत किये बिना ये कानून लाये गए हैं।
आन्दोलनकारी किसानों कि 26 जनवरी की दिल्ली में प्रस्तावित टैक्टर रैली को रुकवाने सरकार सुप्रीम कोर्ट गई पर सुप्रीम कोर्ट ने मामला पुलिस प्रशासन पर छोड़ दिया। घबराई सरकार ने 20 जनवरी को किसानों से बातचीत के 10वें दौर में कृषि कानूनों को डेढ़ से दो साल तक क्रियान्वयन रोकने का प्रस्ताव दिया है पर किसान अभी तक इसे रद्द करने की मांग पर अड़े हैं। 22जनवरी अगली बैठक की तिथि तय हुई है। सरकार को आशा है किसान उनके प्रस्ताव को मान लेंगे वहीं किसान उस दिन इनके रद्द होने की घोषणा की उम्मीद रख रहे हैं।
आश्चर्य है कि इन कानूनों में कई खामियां है ये किसान तो मानते ही हैं, सरकार भी मानती है और सुप्रीम कोर्ट की कमिटी भी मानती है और तमाम संशोधन के लिए तैयार भी है।
सरकार कहती है इनसे किसानों का भला होगा ,पर किसानों का मानना है इनसे जबरदस्त नुक़सान होगा ! ये जबरदस्ती की भलाई नहीं चाहिये| किसानों का विश्वास है कि कितने भी संशोधन कर लें ये कानून ठीक नहीं किये जा सकते, इन्हें रद्द कर नये कानून लाने होंगे। ये फटी चादर रफ्फू लायक नहीं है।दूसरी तरफ सरकार को संसद के दोनों सदनों में बहुमत का दावा भी है तो फिर इन्हे रद्द कर किसानों से बात कर खामीमुक्त नये कानून पास तो किये ही जा सकते हैं।50 साल या सौ साल क्यों कर लगेंगे ? सरकार यदि चाह ले तो 50 दिन ही काफी होंगे।
समस्या ये है कि कि सरकार ने इसे अपनी आन का प्रश्न बना लिया है। भारतीय इतिहास में ऐसे कई राजा, महाराजा हुए जिन्होंने अपने आन के लिए अपनी ही जान दांव पर लगाया। परन्तु यहां आन मोदी सरकार दिखा रही है और जान किसानों की जा रही हैं। अब -तक 70 से अधिक किसान इस आन्दोलन में अपनी जान गंवा चुके हैं। यह आन नहीं अहंकार है।जनमत की ना सुनना बड़प्पन नहीं कायरता है। यह नहीं भूलना चाहिए लोकतंत्र में सरकारें भले ही बहुमत से चलती हैं परंतु स्वयं लोकतंत्र जनमत से चलता है। यहां, गोदी मीडिया के प्रयासों के बावजूद जनमत आन्दोलनरत किसानों के साथ है।
Kishan ko ullu banane ka poora koshish kar rahi ab pata chal raha hoga sarkar ko kisese pala pada hai kood ke court panhuch jata hai court ka bhi ijjat ki dhanji uda raha hai
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