केन्द्र के तीन क‌षि कानूनों केे खिलाफ किसानों का विरोध एक जनआंदोलन का रुप ले चुका है। मूलतः पंजाब और हरियाणा के किसानों द्वारा शुरू किये गये इस आन्दोलन के साथ देश के अन्य राज्यों के किसान भी जुड़ गए हैं। एक महीने से अधिक समय से हाड़ कंपकपाती ठंड में किसान लाखों की संख्या में दिल्ली से लगने वाली प्रांतो की विभिन्न सीमाओं पर घेरा डाल बैठें हैं। किसान इन तीनों कानूनों की समाप्ति चाहते हैं पर सरकार इनमें संशोधन के लिए तैयार है पर खत्म करने को नहीं।


इस क्रम में 30 किसानों की ठंड से दु:खद मौतें भी हो चुकी हैं जबकि एक संत और एक वकील ने किसानों के समर्थन में सुसाइड तक कर लिया है । किसानों को जान की वहीं सरकार को अहंंकार की पड़ी है ।


6 राउण्ड की बातचीत बेनतीजा रही है जबकि 30 दिसम्बर के 7वें राउण्ड की बातचीत में सरकार ने पराली जलाने पर दण्ड और सब्सिडी खत्म करने वाले प्रस्तावित बिजली कानून को न लाने का आश्वासन देकर बातचीत के माहौल को अच्छा रखने की कोशिश की है। पर मुख्य मुद्दे जो कि तीनों कृषि कानूनों को रद्द करने और एमएसपी को सरकारी और प्राइवेट दोनों के लिए अनिवार्य करने हेतु कानून लाने उन पर  न तो सहमति बनी है और न ही इसके आसार दिखे हैं।


बिहार में शराबबंदी कानून शराबियों से बिना पूछे (उनका कोई यूनियन या संगठन नहीं था) लागू किया गया फिर भी कोई विरोध नहीं हुआ(कम से कम लागू होते वक्त) जबकि शराबियों की संख्या वहां कम नहीं थी। क्योंकि शराबी भी समझ रहे थे ये कानून उनके खिलाफ होने के बावजूद उनके हित में हैं। जबकि इन कृषि कानूनों के साथ ये दोनों ही बातें नहीं है।  किसानों के हितों के वास्तविक प्रतिनिधियों उनके यूनियनों से  विचार विमर्श किये बिना राज्यसभा में हो-हंगामे के बीच अनुचित तरीके से ध्वनि मत से पास करा लिये गये। 



एम पी या एम एल ए किसानों के हितों को अच्छी तरह से नहीं समझ सकते और जब उद्योग क्षेत्र में कानूनों पर काॅरपोरेट जगत के प्रतिनिधियों से विचार-विमर्श किये जा सकते हैं तो कृषि कानूनों पर किसानों से क्यों नहीं?



इन कानूनों से एमएसपी(minimum support price) और एप एम सी पी (Agricultural Produce & Livestock Market Committee ) की मंडियों के खत्म हो जाने निश्चित हैं, समय जो लगे।  जब बाहर टैक्स फ्री हो तो टैक्सयुक्त मंडी में कौन आयेगा और यदि  मंडी भी टैक्स फ्री हो तो मंडियां चलेगी नहीं। मंडी नहीं तो एमएसपी का सवाल भी खत्म हो जायेगा।


इतना किसान समझते हैं  विशेषतया पंजाब और हरियाणा के किसान क्योंकि वही इस आन्दोलन को लीड भी कर रहे हैं। क्योंकि इन राज्यों में ये दोनों चीजें अच्छी तरह काम कर रही हैं। ये बातें केन्द्र सरकार न समझती हो ऐसा हो नहीं सकता, और फिर भी ऐसा किया गया। मंशा तीव्र विकास के नाम पर कृषि और किसानों के मामलों से अपना पल्ला झाड़ने और काॅरपोरेट के भरोसे छोड़ना है।


इसलिए प्रधानमंत्री और अन्य मंत्रियों द्वारा बार-बार  इनके न खत्म होने का बोल वचन दिया जा रहा है। यदि ऐसी मंशा होती तो यह प्रावधान कानून में पहले ही होने चाहिये था।इसी प्रकार कांट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों के जमीन जाने के खतरे भी वास्तविक हैं। ऐसे में गाय और जमीन की तुलना करना वास्तव में किसानों को बोतु (बकरा) बनाना है। जमीन संभालना आसान है ,गायें नहीं।



आन्दोलनरत किसान बहकाये नहीं गये हैं बल्कि जो किसान आन्दोलन के साथ नहीं है उन्हें सरकार और गोदी मीडिया द्वारा बहकाया अवश्य जा रहा है। वास्तव में, आम चुनाव में 26000 करोड़ खर्च करने वाली पार्टी काॅरपोरेट के दवाब में आई लगती है।



आन्दोलनरत किसानों को खालिस्तानी तो कभी आतंकवादी कहा जा गया और कभी इनके पीछे पाकिस्तान और चीन का हाथ बताया गया। असंख्य झूठ इन कानूनों को सही ठहराने के लिये बोला जा रहा है। आनन-फानन के इन कानूनों को 20 वर्षों की बातचीत का नतीजा बतलाया जा रहा है जबकि विरोधी आन्दोलन को कांग्रेस पार्टी का षड्यंत्र, बिचौलिए और कृषि माफिया की छटपटाहट ।



 जबकि एक सर्वे में स्पष्ट हो चुका है कि एमएसपी का लाभ 99% छोटे किसानों को मिलते हैं, माफिया को नहीं । देश में कहीं भी अपने उत्पाद बेचने की बात थी फिर राजस्थान के किसानों का बाजरा हरियाणा में बिकने से रोकने की खबर क्यों आ रही है। गुजरात में बहुप्रचारित दुग्ध कम्पनी किसान को मात्र 17 रुपये प्रति लीटर ही पेमेंट क्यों करती हैं जबकि बाजार में 43 रूपये प्रति लीटर दूध बेचती हैं।यह प्राईवेट कम्पनी का किसानों के प्रति रुख बतलाता है।यूपी में नये कानूनों के बाद फसलों की कीमतों में 50% की गिरावट की भी खबर है।



प्रधानमंत्री का आरोप है किु किसान आन्दोलन द्वारा विपक्ष राजनीति का खेत जोत रहा है। परन्तु जिस देश में सर्वशक्तिमान भगवान के नाम पर राजनीति की जाती रही हो वहां असहाय किसानों के हित के लिये यदि विपक्ष किसान आन्दोलन का समर्थन देने की राजनीति कर भी रहा है तो क्या गलत है? जरूरत मन की बात करने की नहीं बल्कि किसानों की बात सुनने की है। जब तक ऐसा नहीं होता किसानों को एकसाथ ठंड और सरकार के अहं से जूझना होगा साथ ही दिल्लीवासियों को रास्ताबंदी से।