Agricultural reform or a wrong step again?


भारत सरकार ने भारत की कृषि सुधार हेतु तीन नये कानूनों को संसद से पास किया है जिसे प्रधानमंत्री ने ऐतिहासिक कदम बतलाया है। परन्तु इस सरकार का अभी तक का इतिहास ये रहा है कि वो जब भी कोई ऐतिहासिक कदम उठाती है तो वो देश की अर्थव्यवस्था को ऐतिहासिक रुप से नुकसान पहुंचा देती है । नोटबंदी, जीएसटी और धारा 370 के फैसले  इसके उदाहरण रहे हैं।



कहीं ये नवीन ऐतिहासिक कदम भारत की कृषि क्षेत्र जो कि कोरोनाकाल और माइनस 23.9 जीडीपी के समय में भी एकमात्र सकारात्मक विकास दिखाने वाला क्षेत्र रहा है उसका भी नुकसान न कर दे इसकी आशंका तो होती ही है।जिस हड़बड़ाहट और जिस तरीके से बिना बहस के इन कानूनों को संसद विशेषतया राज्यसभा से पास किया गया है और जिस तरह से इनका  देशव्यापी विरोध हो रहा है उससे तो ये आशंका निर्मूल भी नहीं लगती। 

ये तीन बिल जो राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के पश्चात कानून बन गये हैं इस प्रकार हैं-

(1) Farmers' Produce Trade and Commerce(Promotion and Facilitation) Bill, 2020

किसान उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) विधेयक, 2020 से किसानों को ये आज़ादी दी गई है कि वे अपनी कृषि उपज  सरकार द्वारा निर्धारित "एपीएमसी" मंडियों  (Agricultural Produce & Livestock Market Committee ) के बाहर भी देश में कहीं और किसी को भी खरीद और बेच सकते हैं और राज्य सरकार उन पर टैक्स भी नहीं ले सकती। आनलाईन बिक्री भी की जा सकती है। सरकार का मानना है इससे किसानों को  बेहतर मूल्य मिलेंगे आमदनी बढ़ेगी और एक देश व एक बाजार का रास्ता बनेगा।


(2) Farmer's(Empowerment and Protection) Agreement of Price Assurance and Farm Services Bill

किसान मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा विधेयक, 2020  (सशक्तीकरण और संरक्षण)  द्वारा किसानों को कांट्रैक्ट खेती की इजाजत दी गई है जो खेती से पहले ही वे व्यापारियों से वे कर सकेंगे। इसमें क्या ऊपजाना है और उसके मूल्य क्या होंगे ये आपसी सहमति से तय कर कांट्रैक्ट में शामिल किया जायेगा। इनसे सम्बन्धित विवाद का निपटारा कार्यपालिका  के अधिकारी द्वारा किया जायेगा। सरकार की सोच है कि मूल्य की गारंटी से किसानों का शोषण रूकेगा और वे अधिक उपज हेतु उन्नत कृषि तकनीक की ओर प्रेरित होंगे।


(3)Essential Commodities (Amendment) Bill,2020,

आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक, 2020 द्वारा अनाज, दालों, खाद्य तेलों,आलू व प्याज सहित कई प्रमुख खाद्य पदार्थों के उत्पादन, भंडारण,  और बिक्री को सरकारी नियंत्रण से मुक्त कर दिया गया है।अब युध्द,अकाल अथवा  पेरिशबल्स वस्तुओं में 100% और गैर-पेरिशबल्स वस्तुओं 50% मूल्य वृद्धि  जैसी असाधारण परिस्थितियों के अलावा इन वस्तुओं के स्टाॅक करने पर  कोई सीमा नहीं लगेंगी। सरकार का मानना है कि इस सीमा हटने से बड़े कारपोरेट की दिलचस्पी बढ़ेगी और उनके निवेश से कोल्ड स्टोरेज, गोदामों, खाद्य प्रसंस्करण की कमियां दूर हो जायेंगी।


सरकार की मंशा इन कानूनों को लेकर जो भी रही हो किसानों को डर है कि इन कानूनों से मंडिया और एमएसपी दोनों समाप्त हो जायेगी। निजी बड़े काॅरपोरेट का कृषि क्षेत्र में आगमन होगा जो शुरुआत में उपज के लिए बेहतर कीमत की पेशकश करेंगे और किसानों को टैक्स भी नहीं देने पड़ेंगे इससे धीरे-धीरे एपीएमसी मंडिया स्वतः समाप्त हो जायेंगी। 


सरकारी बोल वचन पर आधारित एमएसपी ( Minimum Support Price) की सुरक्षा भी अधिक से अधिक 2024 लोकसभा चुनाव तक रहेंगी। तब ये बड़े काॅरपोरेट किसानों का शोषण करना शुरू कर देंगे।  5 एकड़ से भी कम जमीन वाले 86% किसान बड़े कारपोरेट से मोलभाव की स्थिति में  कदापि नहीं टिक पायेंगे।


बड़े-बड़े कोल्ड स्टोरेज खुलने और स्टॉक सीमा हटने के कारण जमाखोरी भी बड़े पैमाने पर होगी जिससे  देश में हर समय किसी न किसी आवश्यक कृषि उत्पाद का क‌त्रिम टोटा बना रहेगा। यह आम ग्राहकों के हित में भी न होगा। ये बड़े काॅरपोरेट ही तय करने लगेंगे क्या उपजाया जायेगा और कितने में बिकेगा। किसानों की आजादी जाती रहेगी। तब किसानों के पास सुरक्षित विकल्प के लिए न मंडी होगी,न एमएसपी और न ही सरकार।



भारतीय कृषि और किसान पूर्णतः बड़े काॅरपोरेट के नियंत्रण में आ जायेंगे और काॅरपोरेट लाभ पर चलती हैं लोककल्याण पर नहीं। यही कारण है कि किसानों ने इन कानूनों का विरोध शुरू कर दिया है। प्रधानमंत्री आश्वासन दे रहे हैं कि न मंडिया खत्म होगी न एमएसपी , पर किसानों को प्रधानमंत्री और उनके आश्वासन पर भरोसा नहीं है। वे कानूनी भरोसा चाहते हैं जो इन कानूनों में कहीं नहीं दी गई है। यदि झूठ नहीं है तो लिख कर देने से गुरेज क्यों?



प्रधानमंत्री किसानों के इस विरोध को बिचौलियों या मीडिलमेन का विरोध और विपक्ष की साज़िश कहकर खारिज कर रहे हैं। परन्तु मिडिलमेन भी स्थानीय और प्रायः छोटे किसान ही होते हैं वे कृषि और बाजार से संबंधित जानकारियां, इनपुट देते हैं और जरूरत पड़ने पर ऋण भी। किसानों के लिए उतने निष्ठुर नहीं होते जितने काॅरपोरेट मेन हो सकते हैं।


 

इसी प्रकार तमाम  खामियों के बावजूद किसानों को मंडियों से बड़ी राहत मिलती है। मंडिया रहने से उन्हें कम से कम पता तो होता है अपनी उपज कहां ले जानी है और वहां इकट्ठे खरीददार भी मिल जाते हैं।इसी प्रकार किसानों को एमएसपी भी प्रिय है यद्यपि एमएसपी पूरे देश में सरकारी रुप से 6% ही मिल पा रही है मंडियों में भी इनके मिलने की गारंटी नहीं होती है पर मंडियों में या बाहर एमएसपी किसानों को मोलभाव का एक आधार तो देता रहा है।



बिहार में मंडिया 2005 से ही समाप्त कर दी गई है पर इससे किसानों का भला हो गया हो ऐसा तो हुआ नहीं। यहां न तो मंडी है और न कोई वैकल्पिक बाजार छोटे व्यापारियों के भरोसे 96%उत्पाद एमएसपी से कम दाम  में बेचे जा रहे हैं। पंजाब, हरियाणा जैसे  राज्यों में मंडियों का काम शानदार रहा है वहां एमएसपी मिलने का प्रतिशत भी ज्यादा  होता है। इनके न रहने से किसानों को अपनी उपज बेचने में कठिनाई तो होगी ही।



ऐसा भी नहीं है कि इन कानूनों से पूर्व  देश का किसान मंडियों के बाहर देश में कहीं भी अपनी उपज नहीं बेच सकता था। यह खरीद-बिक्री हो रही थी पर लाइसेंस धारी व्यापारियों के माध्यम से और राज्य सरकारों को इन पर टैक्स भी मिलता था। अब इन कानूनों के कारण राज्य सरकारों को भी राजस्व की हानि होने वाली है अतः उनमें भी असंतोष है। 



इसलिए विपक्ष के कई राज्य सरकारें भी इनका खुलकर विरोध कर रही हैं। चूंकि कृषि राज्य सूची का विषय है अतः वो इन कानूनों को अपने अधिकार का हनन मानती हैं। कोई अध्यादेश लाने की सोच रहा है तो कोई सुप्रीमकोर्ट जाने की। जीएसटी के अलावा ये कानून राज्य सरकारों के राजस्व हानि का दूसरा प्रमुख सबब बनने वाले हैं। 


कांग्रेस प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय भी कृषि सुधारों के लाने की बात चली थी पर उनसे राज्यों के राजस्व हानि नहीं होने वाली थी। 2019 के लोकसभा चुनाव के समय कांग्रेस पार्टी के घोषणा पत्र में एपीएमसी को खत्म करने की बात अवश्य थी पर बड़े गांवों और छोटे शहरों में किसान बाजारों के रुप में विकल्प भी दिये गए थे।

 



सवाल कांग्रेस और बीजेपी का नहीं है  सवाल कृषि और किसानों के हित का है। इसमें कोई संदेह नहीं भारत का किसानों को जबरदस्त मेहनत के बाद भी उनका वाजिब हक नहीं मिल पा रहा है नित्य आत्महत्याएं  हो रही हैं। वो खुद मर रहे हैं पर देश का पेट भर रहे हैं। 


भारत में अमेरिका की तरह कृषि सिर्फ व्यवसाय ही नहीं एक जीवन पद्धति भी है। अतः यह संवेदनशील विषय भी है और इनकी परेशानियों के समाधान में भी संवेदनशील होने की जरूरत है जबरदस्ती नहीं। कृषि को लेकर हर राज्य की अलग परेशानियां रही हैं इसलिए संविधान निर्माताओं ने इसे राज्यसूची का विषय बनाया था। एक देश एक बाजार सुनने में अच्छे तो लगते हैं पर एक भाव और एक मजदूरी भी तो होने चाहिए।


सरकारें इनकी परेशानियां का समाधान  करने में असमर्थ हो रही हैं इसलिए निजी काॅरपोरेट का मदद लेना चाहती हैं। अच्छी बात है पर कमजोर किसानों को उनके भरोसे छोड़ देना भी तो खतरनाक है। इन कानूनों से इसी बात का डर है।सरकार इस तरह अपनी जिम्मेवारी से भाग नहीं सकती। ये कानून किसानों के बजाय काॅरपोरेट का हित करने वाले हैं।


यह बिल्कुल संभव था कि काॅरपोरेट की भागीदारी भी हो जाती और किसानों के हित और कृषि विकास भी सुनिश्चित हो जाते जब इनसे संबंधित सभी हितकारी समूह से बातचीत की जाती, विचारों का आदान-प्रदान होता और संसद में गंभीर बहस होती। संभव था कि एमएसपी सभी सरकारी और गैर-सरकारी खरीद में अनिवार्य कर दिया जाता।परन्तु सरकार ने ऐसा न कर एक गलत कदम फिर से उठा लिया है।