Beware of  Indian media!
भारतीय मीडिया से सावधान!

भारत की मुख्य मीडिया का पराभव हो चुका है। इसने अपनी स्वतंत्रता, निर्भीकता और निष्पक्षता  जैसे सदगुन खो दिये हैं।  जनता की वास्तविक समस्याओं से सरकार को रुबरु कराना और सरकार के कार्यों का सही विश्लेषण कर उसे जिम्मेदारी का एहसास कराने के अपने मूल दायित्व को इसने भुला दिया है‌। जिन्होंने इस मीडिया में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता करना चाहा वो मीडिया से ही स्वतंत्र कर दिये गए और जो स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहे हैं वो एफआईआर से त्रस्त हैं।

 

भारतीय मीडिया प्रजातंत्र का एक ऐसा चौथा स्तंभ बन चुका है जो आपसी प्रेम और भाईचारे पर आधारित भारत के सेकुलर, संवैधानिक ,लोकतांत्रिक महल को ही धाराशायी करने में लगा है। ये हमें सही सूचना नहीं दे रहा है, भटका रहा है, विवेक हर रहा है, साम्प्रदायिक बना रहा है  कुल मिलाकर कहें तो हमें मूर्ख बना रहा है। यहां मीडिया और सरकार एक-दूसरे को भरोसे में लेकर चल रही हैं।


यही कारण था कि 2020 के मार्च और अप्रैल महीने में जब देश कोरोनावायरस के आतंक से रुबरु हो रहा था तब भारतीय मीडिया दिल्ली में हुए तबलीग-ए-जमात के मरकज को लेकर समाज में साम्प्रदायिकता का जहर फैला रहा था। ऐसी मीडिया आनेवाली चुनौतियों से देश को क्या सावधान करेगा बल्कि देश के सामने इस झूठे, डरपोक, प्रपंची और ड्रामेबाज मीडिया के मिथ्या प्रचार से सावधान रहना ही एक चुनौती बन गई है।


इन सारी बातों की पुष्टि मुंबई हाईकोर्ट 21 अगस्त को तबलीग-ए-जमात के दिल्ली मरकज में आये विदेशियों के मामले में फैसले से होती है। जस्टिस टी ए नलवडे और एम जी सेविलकर की द्विसदस्यीय पीठ ने अपने आदेश में कहा कि विदेशियों के खिलाफ एक बड़ा  दुष्प्रचार और प्रोपगण्डा  किया गया था जो दिल्ली में मरकज में आए थे। जिस कारण भारत के लोगों ने इनके साथ कोरोना की विपत्ति के समय आतिथ्यसत्कार की अपनी संस्कृति के विपरीत कार्य किया। ये निर्दोष हैं। न वीसा का उल्लंघन हुआ है और न ही इन्होंने देश में कोरोनावायरस फैलाया है।


अदालत ने अपने आदेश में कहा, "एक राजनीतिक सरकार जब महामारी या विपत्ति  में आती है तो बलि का बकरा ढूंढने की कोशिश करती है और हालात बताते हैं और संभावना है कि इन विदेशियों को बलि का बकरा बनाने के लिए चुना गया था।" पीठ ने कहा कि  राज्य सरकार ने "राजनीतिक मजबूरी" में और पुलिस ने "मशीनी रूप" से काम किया।  सरकार विभिन्न देशों के विभिन्न धर्मों के नागरिकों के साथ असमान व्यवहार नहीं कर सकती।इस पीठ ने मुकदमे को खारिज करते हुए यह टिप्पणी किया कि इन गलतियों  का पश्चाताप और नुकसान की भरपाई हेतु सकारात्मक कदम उठाने का सही समय आ गया है।



किन्तु न तो मीडिया को कोई पश्चाताप हो रहा है और न ही कोई सरकार द्वारा सकारात्मक कदम उठने जा रहे हैं। जमीर खो चुकी मीडिया को टीआरपी आती है और इस काम के पैसे मिलते हैं तो उसे भला अफसोस क्यों हो और सरकार को परेशानी में डालने वाले मुद्दों पर परदा पड़ता है तो सरकार को भी दिक्कत नहीं है। बस हिंदु-मुस्लिम ध्रुवीकरण की निरंतरता बनी रहनी चाहिए। यही कारण है मुंबई हाईकोर्ट के फैसले के बाद भी मीडिया के क्रियाकलापों पर कोई अन्तर नहीं पड़ा है। यह सरकार की असफलताओं पर परदा डालने और गैर जरूरी मुद्दे पर टीआरपी बटोरने में लग चुकी है। अतएव हिंदु-मुस्लिम जैसे मुद्दों पर उछल-कूद करनेवाले  एंकरों की ड्रामेबाजी अभी थमने वाली नहीं है।


अब तक 85 हजार से अधिक भारतीयों की जान ले चुकी कोरोनावायरस से भी अधिक महत्वपूर्ण  विषय कंगना रनाउत और महाराष्ट्र सरकार के बीच की जुबानी जंग हो गई है। इस झूठी मीडिया की माने तो लद्दाख में चीन को शिकस्त दिया जा चुका है। भारत की डूबती अर्थव्यवस्था,गिरता जीडीपी, बढ़ती बेरोजगारी भारतीय मीडिया के लिए महत्वपूर्ण सवाल नहीं हैं।


एक चैनल ने बेरोजगारी का नायाब कारण में भी "यूपीएससी जिहाद" नामक कार्यक्रम द्वारा मुस्लिम ऐंगल ढूंढ निकाला है । गनीमत है कि उसके इस कार्यक्रम के प्रसारण पर फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने  रोक लगा दिया है। ऐसा जर्मनी में भी नाजीवाद के समय हुआ था जब सारी समस्याओं का दोष एक समुदाय विशेष (यहूदी) के सर मढ़ा गया था। नाजीवाद की सबसे खूबसूरत बात ये है कि यह अल्पायु होता है और जर्मनी में 10 वर्षों तक चला था।