*प्राचीन इतिहास में घुसकर महान सिकन्दर का direction बदलकर उसे गंगा पार कराने वाले महापराक्रमी के शासन काल में लोकतंत्र का मजबूत स्तम्भ माने जाने वाली प्रेस व मीडिया ने भी अपना  direction  बदल कर सरकार से सीधे मुंह सवाल करने के बजाय उसके चरण की ओर कर लिया है और उसके ही वंदन में लग गए हैं। जिन पत्रकारों ने सवाल पूछने की हिम्मत दिखाई या तो नौकरी गई या-आजादी (जेल)। जिस मीडिया हॉउस ने ऐसी ही हिमाकत की वे छापा ग्रस्त हो गए हैं। 


 


हर मुद्दे पर सरकार का साथ देना, उसकी गलतियों पर परदा डालने के लिए खबरों का संलाप (discourse) बदल देना, सरकार की बजाय विपक्ष से सवाल करना और  सरकार को चुनावी लाभ पहुंचाने के लिए हिन्दु-मुस्लिम डिबेट चलाते रहना भारत की मुख्य मीडिया की पहचान बन चुकी है।



मुंबई के जहाज पर महज 39 ग्राम ड्रग मिलने पर उछलकूद मचाने वाली मीडिया , मित्र के गुजरात पोर्ट पर बरामद 3000 किलोग्राम ड्रग मिलने पर खामोश है। ऐसी मीडिया के लिये  सुपर स्टार शाहरुख़ खान के पुत्र की  संदिग्ध बचकानी गलती देश के  गृह राज्यमंत्री के पुत्र द्वारा लखीमपुर खीरी में की गई असंदिग्ध कातिलना करतूतों से अधिक महत्वपूर्ण है।


 


यही कारण है कि  RAF  के  World's Press Freedom की 180 देशों की सूची में भारत 142 वें पायदान पर खड़ा है।  RAF की रिपोर्ट  में  कहा गया है कि अपना काम ठीक से करने की कोशिश कर रहे पत्रकारों के लिए यह सबसे खतरनाक देशों में से एक है। 


बदलाव हो रहा है! है ना? 


*कोरोना वायरस को फरवरी 2021 में ही कथित मात दे पूरी मानवता की रक्षा करने वाले बाहुबली के शासन काल में देश के लोकतांत्रिक व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने वाली स्वायतशासी संस्थायें भी इस Transformation से बच नहीं सकी है। चुनाव आयोग अब अनिवार्य रूप से चुनावी कार्यक्रम की घोषणा के लिये प्रधानमंत्री की अंतिम (चुनाव पू्र्व) सभा के खत्म होने का इंतजार करता है।


यदा कदा ही सही गोपनीय चुनाव कार्यक्रम की जानकारी भी चुनाव आयोग से पहले सत्तारूढ़ के दल के नेता ही सोशल मीडिया में देकर चुनाव आयोग का काम हल्का कर देते हैं।चुनावी आचार संहिता पालन कराने में खुद चुनाव आयोग का आचरण शुध्द रूप से अशुद्ध रहता है। बिहार विधान सभा में लगभग 10 विधायकों की जीतते-जीतते और बंगाल में नंदीग्राम से ममता बनर्जी की जीतने के बाद हार अबूझ पहेली रही है।



जहां तक भारत के आर्थिक मामले की प्रहरी संस्था CAG का सवाल है जो अपने खुलासे से यूपीए सरकार की नाकों दम किये रहती थी एनडीए सरकार में प्राय: खामोश-सी रही है। यह अलग बात है कि उसकी खामोशी के बावजूद  भ्रष्टाचार धारणा सूचकांक (सीपीआई) में 2020 में 180 देशों में भारत  86वें स्थान पर आ गया है  जो 2015 में 76 वें स्थान पर था। 


बदलाव हो रहा है! है ना! 



CAG  की स्वायत्तता इससे भी समझी जा सकती है कि रॉफेल मामले में सरकार इसकी ओर से सुप्रीम कोर्ट में clearenc report पहले डाल देती है और इसके पास जांच के लिये बाद में भेजती है। सरकार इसे मामूली चूक बतला देती है और आश्चर्य है सुप्रीम कोर्ट इसे मान भी लेता है। 


कैसे नहीं मानता क्यों कि इस बदलाव से सुप्रीम कोर्ट भी अछूता नहीं रहा है। इसकी पुष्टि स्वयं सुप्रीम कोर्ट के चार जजों ने 12 जनवरी 2018 को प्रेस कॉन्फ्रेंस करके की थी और कहा था कि यहां जो कुछ चल रहा है वो सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्रता और भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।



सरकार के विवादित निर्णयों से संबंधित  मामले जैसे धारा 370 की समाप्ति और आरक्षण की सीमा 50 से 60% बढ़ाना, सीएए, एनआरसी, आदि सुप्रीम कोर्ट में लंबित पड़ जाते हैं। वहीं सरकार के पक्ष में विवादास्पद  फैसले देने वाले  राज्य सभा में माननीय हो जाते हैं और व्यक्ति विशेष में वैश्विक प्रतिभा के दर्शन करने वाले NHRC  के चेयरमैन बना दिए जाते हैं।


पेगासस जासूसी कांड के ताजातरीन मामले को ही लें  जिसमें सुप्रीम कोर्ट के बार-बार कहने के बावजूद सरकार ने हलफनामा देने से इंकार कर दिया है। ऐसी नाफरमानी पहले अकल्पनीय मानी जाती थी पर अब नहीं । सुप्रीम कोर्ट निर्णय को लेकर असमंजस में है कदाचित कि ऐसी हठी सरकार से कैसे निपटें! 


इडी, एनआईए, इनकम टैक्स, एनसीबी जैसी देश की  watch dog   मानी जाने संस्थायें सरकार की watch dog  बन गई हैं (आप चाहें तो watch "को silent भी कर सकते हैं)  जिसे सरकार अपने विरोधियों के खिलाफ मनमाने तरीके से इस्तेमाल कर रही है। कई राज्यों की सरकार बनाने और गिराने में इनका बड़ी कुशलता से उपयोग हुआ है। जिस राज्य में चुनाव होने वाले होते हैं वहां के विपक्षी दल के नेताओं पर तो ये शामत बन टूट पड़ते हैं।


जहां तक सीबीआई का सवाल है उस पर सुप्रीम कोर्ट की ताजातरीन टिप्पणी आ चुकी है कि ये मामला ( लखीमपुर खीरी हत्या कांड) उसे दे नहीं सकते। क्यों? ये तो सब जानते हैं। विश्वास करें ऐसा  सुप्रीम कोर्ट ने ही कहा है। 


यूपी के लखीमपुर खीरी में जो हत्या कांड किया गया है  यह बदले हुए भारत में ही संभव है। देश का गृह राज्यमंत्री  25 सितम्बर 2021को 10 महीनों से चल रहे किसान आन्दोलन को 2 मिनट में देख लेने की धमकी देता है और उसका बेटा एक हफ्ते में 3 अक्टूबर 2021को यूपी के लखीमपुर खीरी में शांति पूर्ण प्रदर्शन कर लौट रहे किसानों को अपनी गाड़ियों से कुचल कर मार देता है। एनसीपी नेता श्री शरद पवार को हत्यारे की सोच एवं  हत्या करने के अंदाज से जलियांवाला बाग कांड की याद आती है। गलत तो नहीं है? 



आरोपियों को बचाने की जो कोशिशें हुई है वो भी अद्भुत रही है।  किसानों को ही उपद्रवी बता आरोपियों के बजाय विपक्ष के नेताओं को गिरफ्तार करना प्रजातांत्रिक व्यवस्था के किसी प्रशानिक कौशल के नहीं बल्कि इस जघन्य घटना पर अधिनायकवादी व्यवस्था द्वारा तानाशाही लीपापोती के अप्रतिम उदाहरण हैं। सुप्रीम कोर्ट की फटकार के बाद गिरफ्तारियां हुई हैं पर अभी भी गृह राज्यमंत्री पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है जबकि  FIR  में उनका भी नाम है। 



*"न कोई घुसा है, न घुसा हुआ है और न किसी ने भारतीय पोस्ट पर कब्जा कर रखा है "की अभूतपूर्व सूचना देने वाले के समय में Transformation से देश का भू-गोल भी नहीं बचा है। यह परिवर्तन पड़ोसी देश चीन ने भारत केे लद्दाख में पिछले साल से ही कर रखा है। उसी क्रम में 15 जून 2020 में भारत के 20 जवानों की शहादत हुई थी।


इस संबंध में भारत और चीन दोनों देशों की सेना के बीच 10 अक्तूबर 2021 की 13 वें राउंड की बातचीत भी असफल रही है। चीन न तो गोगरा सेक्टर छोड़ रहा है और ना ही देप्सांग के दौलत बेग ओल्दी को खाली कर रहा है। भारतीय सेना अभी तक उस जगह तक पेट्रोलिंग नहीं कर पा रही है जहां तक मई 2020 के पहले तक किया करती थी।


पिछले 7 सालों का इतिहास और अनेक  अन्तराष्ट्रीय मापदंड के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में चौतरफा बदलाव आया है पर  गलत दिशा में। भारत आगे बढ़ने की बजाय पीछे खिसका है।  "India reform world misinformed " की कोशिश नाकाम हो चुकी है। आज विश्व की निगाह में भारत पहले की तुलना में कम डेमोक्रेटिक, कम सेक्युलर और आर्थिक रूप से कमजोर हुआ है। 


इससे पहले कि स्थिति और खराब हो भारत को समय रहते इस समस्या  से निजात पाना होगा।भारत न तो जर्मनी है और न ही इसके लिए किसी world War की जरूरत  है। चुनाव से समस्या पैदा हुई है और चुनाव से ही इसका समाधान होगा। सिर्फ  गोदी मीडिया के झूठ के   मायाजाल से आजाद हो साम्प्रदायिकता के गफलत से पार पाना है। क्योंकि भारतीयों के स्वभाव में प्रजातांत्रिक मूल्य ऐतिहासिक रूप से इस कदर घुले हुए कि इसमें बदलाव लाना मुश्किल है। विपक्ष भले कमजोर हो पर भारत की जनता जब साथ खड़ी हो जाती है सत्ता के मजबूत से मजबूत पांव  उखड़ जाते हैं। 1977 में दुनिया देख चुकी है। वैसे भी Mother of democracy,  फासीवाद के शिशु को भला कितने दिन संभाल सकती है। 

*बाबू समझो इशारे, मोटर पुकारे पोम पोम! 

 

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