भारतीय अर्थव्यवस्था का चरित्र जो अब तक मिक्स इकोनोमी के ताने-बाने में बुना लोककल्याण कारी समाजवादी था वो बदल कर मुक्त बाजार वाली पूंजीवादी व्यवस्था बनने जा रहा है। 2021-22 का केन्द्रीय बजट सरकार के इसी मंशा को अभिव्यक्त करने वाला बजट है क्योंकि  इसमें पूंजी और संसाधन निर्माण के नाम पर निजीकरण और सरकारी परिसम्पतियों के मुद्रीकरण (monetization) के निर्णय लिये गए हैं। इसे भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए एक गेम चेंजर के रुप में प्रस्तुत किया जा रहा है।


यही कारण है कि इस बजटीय प्रावधानों से देश -विदेश के पूंजीपति खुशी से गद-गद हैं और उनके भरोसे चलने वाला सेंसेक्स उछल रहा है और IMF भी ।


निजी क्षेत्र भी अच्छे होते हैं और सरकार का "व्यापार से क्या सरोकार" (No business to be in business) ये दिव्य ज्ञान अचानक नहीं आया है  बल्कि  ये एनडीए सरकार की  आर्थिक मोर्चे पर 6 वर्षों की नाकामी और कोरोना संकट से  अर्थव्यवस्था में उपजी हाहाकारी निराशा से उत्पन्न हुआ है। जो भी हो यह एनडीए सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था के फ्रंट पर खेला जाना वाला एक महत्वपूर्ण और आखिरी दांव है।


सरकार ने अपनी असफलता स्वीकार कर ली है उसने माना कि आम लोगों के जीवन से जुड़े सारे कार्य  उससे संभल नहीं रहे हैं । इस असफलता का ठीकरा  प्राथमिक रुप से बाबूओं (नौकरशाह) के सर पर फोड़ा गया, सरकार के नीतिगत फैसले या राजनैतिक प्रतिनिधि की बेवजह की दखलंदाजी पर नहीं जो प्रायः हर सार्वजनिक उपक्रम के सर्वेसर्वा होते हैं। दो बैंकों को बेचने और जीवन बीमा निगम में विदेशी निवेश 75% करने का फैसला ले लिया गया है।


एक National Asset Monetization Pipeline  बनाने की घोषणा की गई  जो सरकारी परिसम्पतियों को मुद्रीकरण (आम भाषा में बेचने) को देखेगी । इस काम की प्रगति को ट्रैक करने और निवेशकों को दृश्यता प्रदान करने के लिए एक डैशबोर्ड की भी व्यवस्था होगी।


 यह भी कहा गया है कि Power Grid Corporation of India Ltd (PGCIL) और National Highways Authority of India(NHAI) इसमें नेतृत्व करेंगे। अभी तेल,गैस,बन्दरगाह, एयरपोर्ट, बिजली से संबंधित 100 सेंट्रल पब्लिक सेक्टर एंटरप्राइजेज(CPSE) इस पाइप लाईन में है।


वित्त मंत्री का कहना है सरकार का लक्ष्य चार रणनीतिक क्षेत्रों यथा परमाणु ऊर्जा, अन्तरिक्ष,सुरक्षा और ट्रांसपोर्ट में उपस्थिति  वो भी न्यूनतम रखनी है बाकि सीपीएसई का निजीकरण करना है या बंद कर देना है। 


अपने से अधिक प्राईवेट सेक्टर पर सरकार का ऐसा भरोसा आश्चर्यजनक है और इस सम्मोहन में वो कम से कम इस बजट में आम जनता को भूल सी गई।


भयंकर बेकारी और आर्थिक तंगी , मंहगाई से जूझ रहे युवा, मजदूर, किसान तमाम आम लोग राहत का तब तक इन्तजार करें जब तक निजीकरण का कार्य पूरा नहीं हो जाता।शायद ‌निजी क्षेत्र में यही आस्था  सरकार को उन तीन कृषि कानूनों को रद्द करने से रोक रही है जिसे खुद वो 2 सालों तक स्थगित रखने को तैयार है।


सरकार का मानना है फिलहाल आम लोग इसी रुप में राहत महसूस करें कि उन्हें  नये करों द्वारा आहत नहीं किया गया है। परन्तु पेट्रोल एवं डीजल के दाम में क्रमशः 2.50 और 4 रूपये प्रति लीटर का सेस लगा कर सरकार ने इसकी भी भरपाई कर ही दी है।


शिक्षा और ग्रामीण रोजगार से संबंधित मनरेगा दोनों मद में राशियां कम कर बेरोजगारी से जूझ रहे युवाओं के लिए स्पष्ट संदेश है कि अब देश को आत्म निर्भर बनाना है इसलिए वे भी आत्मनिर्भर बन सकते हैं तो बने।


 क्योंकि सरकार ने मन बना लिया है "नो बिजनेस टू बी इन बिजनेस"। खुद की जिम्मेदारी को प्राइवेट सेक्टर पर निर्भर कर आम जनता को आत्मनिर्भरता का संदेश देना, अद्भूत है।


निजीकरण के फायदे हैं। सरकार के पास एकमुश्त पूंजी आयेगी पर वो सिर्फ एक बार क्योंकि फिर वो परिसम्पति हाथ से निकल जायेगी। सरकार का कहना है निजीकरण से प्राप्त पैसे से वो लोककल्याण करेगी, सड़कें बनायेगी और अन्य कार्य करेगी। 


जरुरत असली लोककल्याण की है जो कि गरीबी और बेकारी दूर करना है। भीख मांगने और छीना-झपटी के लिए नेशनल हाई वे  की जरुरत नहीं पड़ती। निजीकरण से सरकार की लोककल्याण की क्षमता भी कम हो जायेगी।ईडी, सीबीआई, इन्कमटैक्स और एनआईए आदि  भला कितना लोककल्याण कर पायेंगी!


निजीकरण से नि:स्सनदेह  संसाधन निर्माण में भी तेजी आयेगी वे Modernize भी होंगे पर आम लोगों को भी फायदा होगा, पर बहुत ही फायदा हो इसकी गारंटी नहीं।


अभीतक का अनुभव यही रहा कि निजीकरण से छंटनी होती है, रोजगार घटते ही हैं बढ़ते नहीं और ये स्थायी तो नहीं ही होते हैं। इसके अलावा सरकार की तरह निजी क्षेत्र भी फेल होते हैं। निजी बैंकों के फेल होने जनता के सारे पैसे डूबने के उदाहरणों की कमी नहीं है।


निजीकरण से भारत की अर्थव्यवस्था की सारी समस्याओं का अंत नहीं होना है, पर सरकार इस स्थिति में आ चुकी है कि निजीकरण के अलावा उसे कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। ऐसा भी नहीं है निजीकरण पहली बार हो रहा है यह काम पहले से ही चलता आ भी रहा है ,पर सीमित पैमाने पर वो भी अधिकांश पूंजी विनिवेश के माध्यम से।पर इस बार सरकार ने बड़े पैमाने पर मुद्रीकरण का फैसला लिया है।

 

निजी क्षेत्र भी अच्छे होते हैं  देश के विकास में इनका भी बेमिसाल योगदान रहा है। पर इनकी प्राथमिकता शुद्ध लाभ कमाना हुआ करती हैं लोक कल्याण नहीं यद्धपि उन्हें भी लोककल्याण करने से मनाही नहीं है। भारत जैसे गरीब देश में लोककल्याण की जैसी उम्मीद सरकार से की जाती है वो निजी क्षेत्र पूरा नहीं कर सकते।


इसलिए यहां मिक्स इकोनोमी को अपनाया गया था। गरीबी कम हुई है पर खत्म तो नहीं हुई है । नोटबंदी और तालाबंदी के कारण यह 24% से बढ़कर 42% पहुंच गई  है। इसी प्रकार बेरोजगारी  कोरोना संकट से पहले ही रिकार्ड तोड़ रही है।


ऐसे में  होना ये चाहिए जो सार्वजनिक क्षेत्र  फायदे दे रहे हैं और जो थोड़े-से रुल रेगुलेशन बदलने से फायदेमंद हो सकते हैं उन्हें रखना चाहिए बाकि का ही निजीकरण करना हो तो करनी चाहिए। 


परिसंपत्तियों (Asset) का निर्माण कठिन होता है, बेचना आसान। तत्काल लाभ के लिए दीर्घकालीन नुकसान अच्छी बात नहीं हो सकती। सब कुछ बेच डालूंगा की मानसिकता से बचना चाहिए।


निजीकरण में यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए अर्थव्यवस्था के किसी भी क्षेत्र में चन्द लोगों की मोनोपोली न बननी पाये, प्रतियोगिता बनी रहे अन्यथा आम जनता को लाभ मिलने की आशा धूमिल हो जायेगी तथा एनडीए सरकार की अर्थव्यवस्था सुधारने की आखिरी दांव भी फेल हो जायेगा। 


फिलहाल निजीकरण के इस फैसले से सरकार खुश है कि उसने पूंजी का जुगाड़ कर लिया है ,पूंजीपति और काॅरपोरेट भी खुश हैं उनके लिए नये अवसर के द्वार खुल गए हैं, पर बेरोजगारी से त्रस्त युवा, बुरव्वत में फंसा किसान, मंहगाई की मार झेल रहा मध्यम वर्ग और आम जनता 

वो,बोलो वो क्या करेंगे?

हवन करेंगे, हवन करेंगें, हवन करेंगें....!