Nepal's resentment!
दुनिया बदलती रहती है और यदि बदलाव अनुमानित दिशा में हो तो ठीक है वरना आश्चर्य होता है। डीजल का दाम पेट्रोल से अधिक हो जाना और रोटी-बेटी संबंध रखने वाले देश नेपाल का इतना आक्रमक हो जाना कि उसके सिपाही खुले बोर्डर पर किसी भारतीय को गोली मार दें । ऐसे में इन बदलावों पर सहज विश्वास नहीं होता।
कोरोना काल में पारंपरिक साम्राज्यवाद में विश्वास करने वाला एकमात्र आधुनिक आक्रमक देश चीन की भारत के लद्दाख में हड़पनीति के बीच नेपाल द्वारा अपने नक्शे में कालापानी, लिम्पियधारा और लिपुलेख जैसे भारत के उत्तराखंड राज्य के भू-भाग को अपना बतलाने पर यही कहा जा सकता है कि बड़े मियां तो बड़े मियां छोटे मियां सुभानअल्लाह!
राष्ट्रवाद की सकारात्मक भावना सब देशों के लिए चाहे वो छोटा हो या बड़ा एक समान होती हैं उनका सम्मान किया जाना चाहिए।किन्तु आजकल ये ट्रेंड हो गया है कि सरकारें अपनी व्यक्तिगत या पार्टी हित के लिये दूसरे देश के साथ किसी भी विवादित विषय को शब्दाडंबर (rhetoric) द्वारा एक उग्र राष्ट्रवादी मुद्दा बना देती है।
यह अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिये ठीक तो नहीं ही होता साथ ही शब्दाडंबर पर टिके इस नकारात्मक और छद्म राष्ट्रवाद से राष्ट्रीय हित भी नहीं सधते हैं । साथ ही इसके द्वारा व्यक्तिगत या पार्टी हित हमेशा सध जायें इसकी भी कोई गारंटी नहीं होती है। भारत-नेपाल के बीच ताजा विवाद का एक प्रमुख कारण यही छद्म उग्र राष्ट्रवाद है।
नेपाल के प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली अपनी नेपाल कम्यूनिस्ट पार्टी में मचे बगावती सुर को साधने और देश में सरकार के खिलाफ जारी गुस्से से ध्यान भटकाने के लिए भारत के खिलाफ इसी छद्म उग्र राष्ट्रवाद का प्रयोग कर रहे हैं। इसके लिये उन्होंने भारत के जिन भू-भागों पर अपने दावे किये हैं वो भारत ने अंग्रेजों से उत्तराधिकार में प्राप्त किये हैं लगभग 163 सालों से नेपाल भी यही मानता आया है।
भारत की अंग्रेज सरकार के साथ नेपाल द्वारा की गई 1816 में सुगौली की संधि जिसमें काली नदी को भारत- नेपाल का बोर्डर माना गया था ।उस समय लिम्पियधारा से निकलने वाली कुटीयांगती उत्तर-पश्चिम धारा को नदी का उदगम माना गया था और इसके पूरब का क्षेत्र पर नेपाल का नियंत्रण स्वीकार्य हुआ था। पर नदी के इस उदगम को ब्रिटिश सर्वे माप में बदलकर 1857 में लिपु गाद और 1879 में पंखा गाद उत्तर-पूर्वी धारा को बतलाया गया जो कालापानी के ठीक नीचे है।
नेपाल ने भी इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया था और यही सीमांकन भारत को उत्तराधिकार में मिला । ऐसे में नेपाल की औली सरकार द्वारा आनन-फानन में संसद से नेपाल के नया नक्शा अनुमोदित कराना जो 1816 वाली सीमा रेखा को आधार बनाता है उचित नहीं है और यह भारत को कदापि स्वीकार नहीं होगा । क्योंकि ये तीनों ही क्षेत्र आसपास ही हैं और इनमें से लिपुलेख तो भारत और चीन द्वारा स्वीकृत व्यापारिक सीमा केन्द्र है और यहीं से कैलाश मानसरोवर यात्रा का मार्ग भी निकलता है । इस तरह एकतरफा कागजी नक्शे बदलने से दुनिया बदलती तो हर कोई सिकन्दर हो जाता!
नेपाल द्वारा इस तरह के कदम उठाने में भारत के ओर की गई लापरवाही का भी योगदान रहा है ।नेपाल की घरेलु राजनीति में चीनी और भारतीय कार्ड हमेशा खेले जाते रहे हैं, पर इसकी भी एक सीमा रही है जो इस बार टूटती नजर आ रही है ।राजतंत्र की समाप्ति के पश्चात चीन की पसंद बनी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी भारतीय दादागिरी की बात उठाकर भारत विरोधी भावना भड़काने का हर संभव प्रयास करती रही पर भारत ने इस पर ध्यान नहीं दिया ।1996 में महाकाली समझौते के बाद 1997 में काली नदी के उदगम का सवाल पहली बार उठाये गये जिसे पहले से स्थापित संयुक्त समिति को सौंपा गया।
लेकिन दोनों देशों की "संयुक्त तकनीकी स्तर सीमा समिति" भी इस समस्या का हल नहीं निकाल पायी और तय हुआ कि विदेश सचिव के स्तर पर इस मुद्दे पर आगे बातचीत होगी। काली नदी का प्रश्न बना रहा फिर भी 2009 में जब भारत ने इसी क्षेत्र से मानसरोवर जाने हेतु सड़क निर्माण शुरू किया तो नेपाल ने कोई विरोध नहीं किया।
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