Migrant labor returns become a disaster!


कुछ मुसीबत ऐसी होती हैं जो प्रकृति से आती हैं और यदि बड़ी हों तो आपदा कहलाती हैं। कोरोना वायरस का संकट एक ऐसी ही आपदा है। जबकि कुछ मुसीबत ऐसी होती हैं जो हम खुद की लापरवाही और गलतियों से पैदा कर लेते हैं और यदि यह आपदा के समय की गई हों तो वह विपदा बन जाती हैं। प्रवासी मजदूरों की घर वापसी एक ऐसी ही स्वरचित विपदा है।

Migrant labor returns become a disaster


कोरोना संकट को लेकर 24 मार्च 2020 को राष्ट्रीय तालाबंदी की घोषणा गलती नहीं थी यह तो और पहले होता तो और अच्छा होता पर इसकी घोषणा करते वक्त देश भर में पसरे मजदूरों के बारे में ना सोचना लापरवाही थी तो सिर्फ 4 घंटे की मोहलत देना एक गलती।

इसका एहसास होने में 36 दिन लग गये और 1 मई 2020 को गृहमंत्रालय ने एक विज्ञप्ति द्वारा मजदूरों को अपने घर वापसी इजाजत दे दी पर कई शर्तों के साथ। कुछ शर्तें कोरोना वायरस से सावधानी को लेकर थे जो आवश्यक थे पर मजदूरों के आवागमन हेतु सिर्फ बस की अनुमति और राज्यों की आपसी सहमति और जिम्मेवारी की शर्तें परेशानी खड़ी करने वाले थे। पहली परेशानी तो श्रमिक स्पेशल ट्रेन की व्यवस्था द्वारा दूर कर लिया गया पर राज्यों की सहमति और जिम्मेवारी की शर्त रहने दी गई , जो प्रवासी मजदूरों की घर वापसी का दुखदायी सबब बन गई हैं।

Migrant labor returns become a disaster

 
प्रवासी मजदूर भारत के मजदूर हैं भारत की अर्थव्यवस्था के रीढ़ हैं इनका जन्म कहीं का हो इनका कर्मक्षेत्र पूरा भारत रहा है और अभी जिस मुसीबत में ये फंसे हैं उसका कारण भी भारत सरकार द्वारा लागू "राष्ट्रीय तालाबंदी" रही है। ऐसे में इन मजदूरों को सकुशल घर पहुंचाने की जिम्मेदारी भी भारत सरकार को उठानी चाहिए थी।

इन्हें राज्य सरकारों के भरोसे छोड़ना वो भी तब जब कई राज्य संक्रमण के भय और आर्थिक मजबूरी के चलते खुलेआम इन मजदूरों की घरवापसी का विरोध कर चुके थे। यह विपदा का संवेदनशील समाधान नहीं बल्कि उससे पल्ला झाड़ना था। तभी तो रेल मंत्रालय  2 मई 2020 के सर्कुलर द्वारा अधिकतर फांकाकशी कर रहे मजदूरों से पैसे वसूल कर ही ट्रेन में चढ़ाने का दिशानिर्देश राज्य सरकारों को दिया गया।

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 इस सर्कुलर से नाराज देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी  कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने मजदूरों के टिकट के पैसे कांग्रेस पार्टी द्वारा देने की घोषणा की तब केन्द्र और राज्य सरकारों की संवेदनायें जगीं।केन्द्र सरकार 85% सब्सिडी की बात करने लगी शेष 15% राज्य सरकारों द्वारा भुगतान की बात होने लगी। जब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 85% का आंकड़ा समझाने को कहा तो केन्द्र सरकार के वकील ने समझाने में अपनी असमर्थता जाहिर कर दी।


अभी भी यह स्थिति है कोई राज्य पैसे दे रही है तो कोई मजदूरों को समझा रही है तो कोई प्रतिपूर्ति की घोषणा कर रही है पर अधिकतर मजदूर पैसे देकर ही आ पा रहे हैं। इसके अलावा गृहमंत्रालय का दो दिन बाद 1 मई 2020 आया एक और सर्कुलर भी मजदूरों की दुविधा में डालने वाला था जिसमें कहा गया कि सिर्फ वही मजदूर वापस आ सकेंगे जो वास्तव में संकट में हैं और जो ठीक तालाबंदी से पहले दूसरे राज्यों में गए हैं। इन दोनों ही बातों का पता लगाना मुश्किल था पर इससे केन्द्र सरकार की मजदूरों की घरवापसी को लेकर वास्तविक संजीदगी (?)  का अवश्य पता चल गया है। 

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मजदूरों की घरवापसी की विपदा का एक और पहलू भी है। तालाबंदी के आरंभ में सिर्फ वापस लेने वाले राज्य अनिच्छुक थे अब भेजने वाले राज्य भी अनिच्छुक हो गये हैं क्योंकि उन्हें आर्थिक गतिविधियों को शुरू करने के लिए मजदूरों की पुन:जरुरत महसूस होने लगी है। कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने तो मजदूरों को भेजने से इंकार ही कर दिया। इसलिए अपनी स्पेशल ट्रेन की मांग भी वापस ले ली। खैर किसी ने उन्हें यह ध्यान दिलाया कि भारत में बंधुआ मजदूरी की प्रथा कब की समाप्त हो चुकी है तब वो मजदूरों को फिर से भेजने के लिए तैयार हुए हैं।

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इन सब बातों का यह असर हुआ कि जितने मजदूर रेल से आ रहे हैं उनसे अधिक पैदल ही सैकड़ों और हजारों मील की यात्रा पर निकल पड़े हैं। रास्ते में इन्हें भूख को भी मारनी है और पुलिस की मार से भी बचना है। इस चक्कर में कभी खेत में तो कभी रेल की पटरियों पर चलते हुए पत्नी और बच्चों के साथ अपने धाम की ओर चले आ रहे हैं। ऐसे ही कुछ बेचारों पर  महाराष्ट्र के औरंगाबाद के निकट मालगाड़ी चढ़ गई और 16 लोगों ने अपनी जानें गंवा दी। प्रथम तालाबंदी से अभी तक इस यात्रा में 73 लोग मर चुके हैं फिर भी केन्द्र हो या राज्य या फिर जिला प्रशासन किसी की भी सोई आत्मा नही जग रही है ताकि बसों का प्रबंध कर इन पैदल चलने वाले गरीब मजदूरों को इन्हें अपने गंतव्य तक पहुंचा दें।

Migrant labor returns become a disaster


यह तो सुना था कि कानून अंधा होता है पर जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा चुनी गई सरकार का जनता की असह्य तकलीफ पर इस तरह जानबूझकर आंख मूंद लेना कम ही देखा गया है। विदेश में फंसे भारतीयों को लाने के लिए वायुयान और युध्दपोत भेजे जा रहे हैं इसे एक मिशन के रूप में लिया गया है नाम दिया गया"वन्दे मातरम्" ! यह एक उचित कदम है पर इसी तरह के कदम प्रवासी मजदूरों के लिए उठाये जाते तो इससे किसी की नाक तो कटने वाली नहीं थी।

किसी ने सच ही कहा था भारत दो तरह का है अमीर भारत और गरीब भारत और "सूटबूट की सरकार" की बात भी कही थी फिर भी हम नहीं समझ पाये कहीं हम "पप्पू"  तो नहीं बन रहे ?