Migrant laborers- listen to them.
जिनके कारण भारत के खाद्यान्न भंडार भरे पड़े हैं और जिनके ही भरोसे भारत की अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित होनी है वे ही प्रवासी मजदूर और कामगार लाखों की संख्या में तालाबंदी से सर्वाधिक पीड़ित हैं।

Migrant laborers - listen to them!



रोज कमाने- खाने वाले इन लोगों के पास न रोजगार है न राशन है और न ही रहने का आसरा। तालाबंदी लागू करते समय इनके बारे में सोचा ही नहीं गया और तालाबंदी के दौरान  इनके लिए जो कुछ किया भी जा रहा है वो कम पड़ रहे हैं। जिस टीवी पर सरकार और एनजीओ द्वारा किये जाने वाले राहत की खबरें चल रही हैं उसी टीवी पर इनकी भूख एवं खुले मैदान में जानवरों की तरह जीवन बिताने के दृश्य भी दिखाई पड़ रहे हैं। कहा गया घर में रहें ,पर घर तो गांव में था शहरों में आसरा था जो कि रोजगार बंद होने के साथ ही छीन गया।
Migrant laborers - listen to them!

सच है तालाबंदी के लिए महज 4 घंटे की मोहलत ने इन्हें न घर का रखा न घाट का। उस परिस्थिति की भयावहता का अनुमान लगाना मुश्किल है जिनमें हजारों की संख्या में विभिन्न शहरों में फंसे इन दिहाड़ी मजदूरों ने जिनमें बच्चे, बुढ़े और महिलायें भी शामिल थी  तालाबंदी में पैदल ही सैकड़ों किलोमीटर दूर अपने गांवों की यात्रा करने की ठानी होगी।अधिकांश रास्ते में ही रोक लिये गये, कुछ ने तो बीच रास्ते प्राण त्याग दिये और थोड़े बहुत ही अपने गांव पहुँच पाये।

 गांव वाले भी इन्हें हाथों- हाथ लेने को तैयार न थे क्योंकि कोरोना वायरस के संक्रमण की आशंका ने उन्हें भयभीत कर रखा था। अरस्तू ने कहा था जो मनुष्य समाज में न रहता हो या तो वो देवता है या जानवर। वायरस से डरने वाले देवता तो हो नहीं सकते और संक्रमित व्यक्तियों के प्रति घृणा एवं चिकित्साकर्मियों के साथ किये जा रहे हिंसक व्यवहार तो चौपाये के ही अनुरूप दिखते हैं।
Migrant laborers - listen to them!

इसी सन्दर्भ में यह कहना सही होगा कि प्रवासी मजदूरों के प्रति हमारी सोच और व्यवहार मानवता और इंसानियत के अनुकूल होने चाहिए। सूरत और फिर मुंबई की बान्द्रा स्टेशन जैसी घटनायें मजदूरों की घर जाने की छटपटाहट ही तो हैं और इसमें कुछ गलत भी नहीं है। पहले कोरोना के नाम पर रोक रखना और अब अर्थव्यवस्था बचाने के नाम पर रोकने की सोचना गलत है।

 इनकी मेहनत भले ही आर्थिक आउटपुट देती हैं पर ये मशीनी कल-पुरजे नहीं हैं, हम-आप जैसे मनुष्य ही हैं अत: इन पर मानवीय ढंग से विचार किया जाना चाहिए। मजदूरों की चिंता किए बगैर अर्थव्यवस्था की चिंता व्यर्थ है। जो अपने घर या गांव जाना चाहते हैं उन्हें जाने देना चाहिए। घर में आराम से बैठ बदजुबान व चाटुकारी मीडिया के प्रभाव में बेफिजूल की आशंका सही नहीं है ये मजदूर अपना घर भी संभाल लेंगे और देश की अर्थव्यवस्था भी

यह बात राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा जैसे कुछ राज्य सरकारों को समझ में आई है इसलिए अब वे इन मजदूरों को वापस लेने को तैयार हो गये हैं पर बिहार, झारखंड जैसे ज्यादातर राज्य इसके खिलाफ हैं क्योंकि संक्रमण बढ़ जाने की वास्तविक आशंका है।ऐसे में केन्द्र सरकार को पहल करनी चाहिए। फालतू की बात और मनगढंत मंत्रों के जाप से बात नहीं बनती । इसके लिए एक राष्ट्रीय नीति और योजना बना कर काम करने की जरुरत है। इसे राज्यों की मर्जी पर न छोड़ें।


 स्पेशल ट्रेन व बस की व्यवस्था करनी चाहिए। "पीएम केयर फंड" में आ चुके पैसे खर्च करने के लिए ही तो हैं! ऐसे में यह कठिन है पर असंभव नहीं कि ये मजदूर अपने गांव-घर भी पहुंच जायें और कोरोना वायरस का संक्रमण भी नहीं फैले। ये मजदूर हमारे देश के पूंजी हैं मुसीबत नहीं। प्रधानमंत्री ने सभी भारतीयों को सैनिक कह दिया पर यदि वास्तविक सैनिकों के अलावे कोई सैनिक हैं तो यही मजदूर हैं अतएव इनका मनोबल बनाये रखना आवश्यक है ।टूटे मनोबल से कोई युध्द नहीं जीता जा सकता चाहे वो वास्तविक हों या आर्थिक!