अभी देश के सामने प्रमुख मुद्दा परमाणु युद्ध के समय क्या करना चाहिए ये नहीं है और न ही स्वयं आहुत कश्मीर संकट है , बल्कि देश पर छाये आर्थिक संकट के घनघोर बादल हैं। बेवकूफी की पराकाष्ठा में लिए गए नोटबंदी और नाम कमाने की जल्दबाजी में लाये गए जीएसटी जैसे निर्णयों के दुष्परिणाम अब अपने पूरे शबाब पर आ चुके हैं।



Indian economy in the midstream!


आज ढुलकती हुई भारतीय अर्थव्यवस्था बीच भंवर में गुड़- गुड़ गोते खा रही है और आरबीआई की आकस्मिक निधि से 176 लाख करोड़ झटक कर झटपट पार  लगाने की उम्मीद की जा रही है। भारतीय अर्थव्यवस्था की इस डगमगाती स्थिति का खुलासा आरबीआई की 2018-19 की वार्षिक रिपोर्ट से भी हुआ है।




इस रिपोर्ट के अनुसार 2018-19 के आखिरी तिमाही में जीडीपी की दर 5℅ की रही जो पिछले 6 सालों में सबसे कम है। इसी अवधि में पिछले साल 7.8 % दर रही थी।वहीं नोमिनल जीडीपी 8% दर रही जो पिछले 17 सालों में सबसे कम है। उल्लेखनीय है कि अरविंद सुब्रमण्यम जो एनडीए सरकार में मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे थे उनका कहना है कि एनडीए सरकार में जीडीपी मापने के पैमाने में फेरबदल कर दिया गया है जिसके कारण पुराने पैमाने की तुलना में जीडीपी 2.5 %अधिक बतलाती है। निर्माण क्षेत्र में भी भारी गिरावट आई मात्र 0.6 % की वृद्धि दर जो पिछले साल 12.1% की थी।" मेक इन इंडिया" का ऐसा प्रदर्शन?


8 कोर सेक्टर जिसमें कोयला, सीमेंट, कच्चा तेल, प्राकृतिक गैस, रिफाइनरी उत्पाद,खाद, स्टील और बिजली आते हैं उनकी वृद्धि दर भी पिछले साल के 7.3 %से घट कर 2.1%हो गई है।सबसे हाहाकार वाली स्थिति आटोमोबाइल उद्दोग क्षेत्र में बनी है जहां ये गिरावट औसतन 30% की हुई है।गाड़ियां बिक नहीं रही हैं। फैक्ट्रियों में काम रोके जा रहे हैं व्यापक पैमाने पर कामगारों की छंटनिया हो रही हैं। कृषि क्षेत्र की कहानी भी ऐसी ही यहाँ भी वृद्धि दर घटकर 2%रह गया जो 5.1% हुआ करती थी। मंहगाई दर को जबरदस्ती कम रखने का सबसे बुरा असर किसानों पर पड़ा है ग्रामीण आय वृद्धि दर 1.1% तक आ गिरी है।



आरबीआई ने अपने रिपोर्ट में यहभी कहा है कि बैंकों में धोखाधड़ी के मामले में पिछले साल की तुलना में 74%की वृद्धि हुई है और देश में नकदी लेनदेन भी 21%की दर से बढ़ा है। अभी देश में 21 लाख करोड़ रुपये नकद चलन में हैं जो नोटबंदी से पूर्व 17 लाख करोड़ रुपये थी। नकली नोटों में भी काफी इजाफा हुआ । आरबीआई रिपोर्ट के ये कुछ तथ्य स्पष्ट रूप से भारतीय अर्थव्यवस्था के खस्ताहाल को बयान करते हैं।



     रिपोर्ट तो अभी आई है हालात काफी पहले से खराब होते जा रहे थे। कई  छोटे और मध्यम  उद्योग नोटबंदी के दौरान ही समाप्त हो गए और कुछ उसके बाद पुन: पनपने की कोशिश की तो जीएसटी ने ऐसा करने नहीं दिया। बेरोजगारी दर पहले ही 45 सालों का रिकॉर्ड तोड़ चुकी थी अब ताजा हालात तो और बुरें हैं अकेले आटोमोबाइल क्षेत्र में 3,50000 कामगारों की छटनी अभी तक हो चुकी है।नये तो क्या पुराने रोजगार भी हर तरफ खत्म हो रहे हैं।



 फलत: लोगों की क्रयशक्ति कम हो गई।मोटर-कार सहित घरेलु उपभोग की वस्तुओं की भी बिक्री घट रही हैं। वहां भी उत्पादन कम करना पड़ गया है। ऐसे में निजी पूंजी निवेश भी थम-सा गया है। यही है भंवर जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था आ फंसी है। ऐसा नहीं कि सरकार को  सावधान करने की कोशिशें नहीं हुई। ये अन्दर और बाहर दोनों ओर से हुईं। पर नतीजा! अन्दर वालों से इस्तीफे ले लिए गए और बाहर वालों को देशद्रोही ,अरबन नक्सल आदि संज्ञाओं से विभूषित किया गया।


असल में अर्थव्यवस्था एक जटिल विषय है यह लफ्फाजी और जुमलों से नहीं चलती पर हमेशा चुनावी मोड में रहने वाली मोदी सरकार ने  शुरूआत में भारत की अर्थव्यवस्था को भी जुमलों से चलाना चाहा। बिना सुविचारित  मेक इन इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया,जन-धन योजना, नोटबंदी  जुमलों का प्रयोग किया गया। इनमें से बाकि जुमलों से सरकार और जनता  दोनों ने मुक्ति पाली, पर नोटबंदी भारतीय अर्थव्यवस्था के साथ काल की तरह चिपक गई।



 इसने धीरे -धीरे अपना असर दिखाने शुरु किये और जनता की परेशानियां  बढने के साथ ही साथ भारतीय अर्थव्यवस्था भी चरमराने लगी। ऐसे में हमेशा चुनावी मोड में रहने वाली सरकार ने अपनी चुनावी रणनीति ही बदल ली। आर्थिक मुद्दों को छोड़ दिया अब चुनाव जीतने के लिए सिर्फ भावनात्मक मुद्दे महत्वपूर्ण हो गए। लव जिहाद, गोरक्षा, तीन तलाक , कब्रिस्तान- शमशान और धारा 370 आदि देश की प्रमुख समस्यायें  बना दी गई।इस काम में मीडिया के एक बड़े समूह ने जिसे अब गोदी मीडिया कहा जाता है बड़ी मदद की।



 इडी और सीबीआई  जैसी एजेन्सियों  का इस्तेमाल विरोधीयों की आवाज दबाने के लिए किया गया। आरबीआई और चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं की स्वायत्तता प्रभावित की गई। सुप्रीम कोर्ट को भी नहीं बख्शा गया जिसके कारण चार जजों को इतिहास में पहली बार पब्लिक में प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ी। इन सारे उपायों से एनडीए विशेषतया बीजेपी को जबरदस्त सफलता मिली वो एक के बाद एक चुनाव जीतती चली गई। लक्ष्य पूरे हो रहे थे ऐसे में अर्थव्यवस्था की ओर भला ध्यान क्यों जाता?


Indian economy in the midstream!

 फिर भी आजमाने  के लिए जनधन योजना, उज्ज्वला योजना, तरह-तरह की बीमा योजनाओं के दम पर जिनमें से कुछ अच्छी भी थी आर्थिक मुद्दों  पर चुनाव लड़ा पर एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हार के साथ यह अभिनव प्रयोग फेल हो गया। नोटबंदी, जीएसटी, बेरोजगारी , भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भारी पड़ गए। इसलिए 2019 लोकसभा चुनाव में पुनः पुराने फार्मूले की वापसी हो गई। ईडी, सीबीआई, इनकमटैक्स  और गोदी मीडिया सक्रिय कर दिए गए।



 मुद्दा बनाया राष्ट्रवाद जो मुख्यतः पाकिस्तान विरोध तक सीमित था इसके अलावा सदैव की तरह हिन्दु- मुस्लिम का मुद्दा तो था ही। विपक्ष द्वारा उठाये जाने वाले भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, नोटबंदी और किसानों के असंतोष जैसे आर्थिक मुद्दे गोदी मीडिया द्वारा दबा दिए गए। पुलवामा, बालाकोट,अभिनंदन की वापसी,पाकिस्तान से बदला, घुस कर मारा आदि भावनात्मक मुद्दों को हवा दी गई।इसके अलावा चुनाव आयोग का आशीर्वाद और तिलस्मी इवीएम का सहारा था ही। फलस्वरूप चुनाव जीत गए फिर से सरकार में वापसी हो गई। पर भारत की अर्थव्यवस्था!


आनन-फानन में आरबीआई की आकस्मिक निधि से रिकॉर्डतोड़ 176 लाख करोड़ रुपये निकाले गए हैं और कुछ बैंकों का विलय करने का निर्णय किया गया है। जानकारों  का कहना है ये काफी नहीं है,कुछ ठोस उपाय करने पड़ेंगे और अब भी भारत की अर्थव्यवस्था  इस भंवर से भी निकल सकती है।इसके लिए जरूरी है पहले तो संकट है इसे स्वीकार किया जाय दूसरे  अर्थव्यवस्था के जानकार लोगों की सहायता से संकट से निकलने वाले उपाय खोजे  जायें और फिर उन पर बिना किसी दबाव के अमल में लाया जाय।



 पर यहां संकट यह है  संकट को संकट मानने से ही इंकार किया जा रहा है। हाल में ही एक राज्य को  'अभिन्न से भिन्न 'और 'भिन्न से अभिन्न' बनाने वाले आत्ममुग्ध  गृहमंत्री  का यह बयान कि अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक मंदी के समय भारत अभी भी सबसे तेज विकास करने वाला विकासशील देश बना हुआ है, यही साबित करता है। वैसे यह दोनों बातें गलत हैं।सबसे तीव्रता से विकास करने वाला विकासशील देश अब चीन है जिसकीजीडीपी 6.2% जबकि भारत की 5%। इसके अलावा एक और कटु सत्य है विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में भारत का स्थान 5वें से घटकर 7वां  हो गया है।



दुसरे भारतीय अर्थव्यवस्था की ये हालत अन्तर्राष्ट्रीय मंदी से नहीं हुई  क्योंकि ये 2008 जैसी ऐसी भी कोई भारी मंदी नहीं है बल्कि जैसा कि डा० मनमोहन सिंह ने बतलाया यह नोटबंदी, जीएसटी और सरकार के कुप्रबंधन का नतीजा है। समाधान हेतु सभी पक्षों के जानकार लोगों की राय लेने की सलाह भी दी। पर चुनाव में मिली भारी सफलता के मद में चूर सरकार और उनके भक्तों को ये नागवार लगा और कुछ ने उनके शासनकाल के 2013के जीडीपी जो 4.3%थी को याद करने की हिदायत दी।


 यह तुलना भी सही नहीं है आज के मोदी जीडीपी मापक यंत्र से 2013 की जीडीपी मापेंगे तो 4.3%नहीं बल्कि 6.8% होगी और कल के मनमोहन जीडीपी मापक यंत्र से आज की जीडीपी मापेंगे तो वह 5% नहीं 2.5% होगी। यह बात इससे भी साबित होती है मुद्रास्फीति को छोड़ अर्थव्यवस्था के प्राय: अन्य मानकों में 2013 की स्थिति आज से अच्छी थी। इसी प्रकार कुछ लोगों ने  नोटबंदी को एक राजनीतिक निर्णय बतला कर इसका बचाव करना शुरू किया है और यूपी के विधानसभा में मिली भारी जीत को इसकी सफलता का पैमाना। लेकिन क्या चुनाव जीतने के लिए देश की अर्थव्यवस्था का बेड़ा गरक कर देना सही राजनीति है! क्या अभी ये भी  मुमकिन है।

Indian economy in the midstream!

                        वास्तव में भारतीय अर्थव्यवस्था को इस संकट से निकालने के लिए सरकार  को चुनावी मोड से बाहर आकर गंभीर प्रयास करने की जरूरत है  ऐसे में सब सही लोगों से सलाह लेने का मनमोहन सिंह  की राय गलत भी नहीं है। यही कारण है कि सरकार की सहयोगी पार्टी शिव सेना ने मनमोहन सिंह का समर्थन किया है। बीजेपी के अपनी पार्टी के ही वरिष्ठ नेता डा०मुरली मनोहर जोशी ने भी कुछ इसी प्रकार की बातें कही हैं। उन्होंने कहा कि देश को ऐसे नेताओं की जरूरत है जो अपने सिध्दांतों  पर अडिग रहते हुए प्रधानमंत्री से बहस करे बिना इसकी चिंता किए बगैर इनसे वे खुश होंगे या नाराज अपनी बात रख सके।

अन्त में-
सुन साहिबा सुन, जनता रही सर धुन
मनमोहन की ना सुनी, मुरली की तो सु..न .. न।