भारतीय संविधान द्वारा सुप्रीम कोर्ट की स्थापना देश की एक स्वतंत्र व सर्वोच्च अपीलीय न्यायपालिका के रूप में की गई है।न्यायिक पुनर्विलोकन(जुडिशियल रीव्यू) शक्ति से लैस भारत का सुप्रीम कोर्ट  दुनिया का  सबसे  शक्तिशाली  कोर्टों में से एक है जिसकी प्रमुख जिम्मेवारी भारत के संविधान की रक्षा करना और व्यक्तियों को मिले मूल अधिकारों को संरक्षण प्रदान करना है।

Supreme Court - Hope and apprehension!


 अभी तक के सुप्रीम कोर्ट के क्रियाकलाप का इतिहास ऐसा रहा है कि भारत की जनता जितना विश्वास अपने सुप्रीम कोर्ट पर करती है उतना किसी अन्य संस्था पर नहीं। सुप्रीम कोर्ट प्रायः अपने निष्पक्ष, भयरहित और विधिसम्मत निर्णयों द्वारा उत्साही विधायिका और  कार्यपालिका की उच्छ्श्रृखंलता से भारत के संविधान और मूल अधिकारों की रक्षा बखूबी करता आया है।  एनडीए के शासनकाल में जहाँ अन्य संस्थाओं  ने अपनी स्वायत्तता और विश्वसनीयता  खोयी है, वहीं  कुछ बातें ऐसी हुई हैं जिसने सुप्रीम कोर्ट की स्वतंत्र छवि पर भी आघात पहुँचाया है।



सर्वप्रथम 12 जनवरी 2018 को उस समय देश की जनता को सदमा लगा जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिषठतम जजों श्री चेलमेश्वर, श्री गोगई, श्री लोकुर और श्री जोजेफ ने चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा के क्रियाकलाप के विरूध्द प्रेस कॉन्फ्रेंस कर यह घोषणा की  सुप्रीम कोर्ट में सब ठीक नहीं चल रहा है। रोस्टर प्रणाली में गड़बड़ी की जा रही है वरीयता की अवहेलना कर राजनीतिक रूप से  संवेदनशील मामले विशिष्ट जजों को सौंप कर न्याय की निष्पक्षता प्रभावित करने की कोशिशें की जा रही हैं।यह  तथ्य सुप्रीमकोर्ट की स्वतंत्रता और भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक है। जब प्रेस में किसी ने पूछा कि क्या इसका संबंध जस्टिस लोया  के मौत वाले केस से है तो जस्टिस गोगई ने कहा हां वो भी एक कारण है।


 इस प्रेस कॉन्फ्रेंस से जो सच्चाई  सामने आई उससे सुप्रीम कोर्ट की प्रतिष्ठा  और जनता के विश्वास को जबरदस्त ठेस भले ही लगे हों  पर सुप्रीम कोर्ट के रवैये में कोई  खास बदलाव नहीं दिखा यथा संविधानपीठ से ये चारों जज बाहर ही रखे गए और  जस्टिस लोया का केस भी पहले से निर्धारित जज ने सुना और उसे खारिज भी किया। इतना ही नहीं चीफ जस्टिस ने स्थापित परम्परा  तोड़ते हुए स्वयं अपने खिलाफ जमीन धोखाधड़ी मामले को सुना और उसे खारिज भी कर दिया। 20 अप्रैल 2018 को 7 राजनीतिक दलों ने राज्य सभा में चीफ जस्टिस श्री दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव का आवेदन दिया जिसे यद्दपि उपराष्ट्रपति ने खारिज कर दिया परन्तु जो मानहानि होनी थी वो तो हो गई।

Supreme Court - Hope and apprehension!

3 अक्तूबर 2018 , को प्रेस कॉन्फ्रेंस करने वाले माननीय जजों में से ही एक, जस्टिस श्री रंजन गोगई द्बारा चीफ जस्टिस का कार्यभार संभालने  से उम्मीदें बढ़ीं की अब सब ठीक हो जायेगा। कुछ प्रशासनिक चुस्तीयां बढ़ी भी। प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा द्वारा रोस्टर और जजों के बीच कार्यों के आवंटन को सार्वजनिक करने  के फैसले को चीफ जस्टिस गोगई ने जारी रखा। परन्तु जहां तक रोस्टर आवंटन में  जजों की सलाह लेने की बात थी वो लागू नहीं हुई।


 इस मामले में अकेले चीफ जस्टिस रंजन गोगई ही फैसले लेते हैं। जजों की नियुक्ति से सम्बन्धित 'एमओपी'(मेमोरेण्डम आफ प्रोसेड्यूर) पर अभी भी सरकार ने फैसला नहीं लिया है। इस संबंध में सुप्रीम कोर्ट ने  एमओपी के ड्राफ्ट को ही फिलहाल नियुक्ति प्रक्रिया में अपना लिया है। जजों की नियुक्ति और उच्च न्यायालय के जजों की पदस्थापना एवं स्थानान्तरण में कालेजियम के निर्णय और 'एमओपी' का ध्यान रखा जा रहा है।


इतना सब के बावजूद चीफ जस्टिस गोगई के कार्यकाल में भी  सुप्रीम कोर्ट के कुछ निर्णय और गतिविधि ऐसे हुए हैं जिनको लेकर विवाद हो गया। राफेल मामले में निर्णय के बाद पता चला कि सरकार ने 'सीएजी' की सहमति को लेकर एक झूठा शपथपत्र सुप्रीमकोर्ट में डाला था। इसीप्रकार  सीबीआई डायरेक्टर आलोक वर्मा को हटाने वाले मामलें में भी सुप्रीम कोर्ट के द्वारा उन्हें पद पर बिठाना और दो दिन में ही उस कमिटी द्वारा फिर हटा देना जिसमें सुप्रीम कोर्ट के जज भी शामिल थे, को लेकर विवाद हुए। इन दोनों ही मामलों में निर्णय कार्यपालिका के पक्ष में गए और साथ ही सीलबंद लिफाफे में सरकारी जानकारी देने की प्रथा की भी शुरूआत हुई।



 इसी बीच  सुप्रीम कोर्ट की कर्मचारी रह चुकी एक महिला द्वारा स्वंय चीफ जस्टिस गोगई के खिलाफ 'सेक्सुअल ह्रासमेंट' के सनसनीखेज आरोप ने हंगामा खड़ा कर दिया। इसे राजनीतिक रूप से संवेदनशील मामलें सुन रही न्यायपालिका को प्रभाव में लेने की कोशिश तौरपर  देखा गया और चीफ जस्टिस गोगई  को यह बात फिर से कहनी पड़ी भारत का लोकतंत्र खतरे में है। वैसे इस मामले को जिस तरह निबटाया गया उस पर सवाल उठे।सवाल ईवीएम और चुनाव आयोग की पक्षपाती रवैये को लेकर भी उठे थे जिसका अन्तिम हल नहीं निकल सका है।


सवाल तो असम के एनआरसी  की गड़बड़ी के लिए भी उठे हैं जहां लाखों लोगों की नागरिकता कटघरे में है जिसे सभी अधिकारों की जननी कहा जाता है। सवाल धारा 370 को लेकर भी हैं जहां संविधान और मूल अधिकारों दोनों के उल्लंघन के प्रश्न निहित हैं और सुप्रीम कोर्ट की प्रतिक्रिया सुस्त रही।सवाल बाबरी मस्जिद का भी है कि यह आस्था का प्रश्न है या भूमि विवाद का? अन्त में सवाल जजों के  मुकदमे से 'रिक्यूजल'(सुनने से हट जाना) और 'ननरिक्यूजल'(पार्टी द्वारा मांगे जाने पर भी न हटना) को लेकर भी है जो एक तो गौतम नौलखा और फिर भूमि अधिकरण मुकदमें से जगजाहिर हुआ है।
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इन बहुतेरे सवालों के घेरे में चीफ जस्टिस रंजन गोगई की वो बातें याद आती हैं जो उन्होंने जस्टिस रहते हुए 12 जुलाई 2018 को इण्डियन एक्सप्रेस के एक कार्यक्रम में कही थी। उन्होंने कहा  था कि न्यायालय पर जनता का विश्वास  बना रहे यह इस संस्था के लिए जरूरी है और यह भरोसा न्यायाधीश के निर्णय से ही  पैदा किए जा सकते हैं। इसके लिए न्यायाधीश को भयरहित होना पड़ता है और निडरता से निर्णय लेने पड़ते हैं। आगे उन्होंने यह भी कहा कि जनता की स्वतंत्रता को खतरा अकेले न्यायपालिका से नहीं  होता बल्कि तब होता है जब वो सरकार के अन्य दो अंगो में से किसी एक से भी  सांठगांठ कर लेते हैं।


 दरअसल किसी भी लोकतंत्र में सरकार यदि पूर्ण बहुमत वाली होती और विपक्ष बिखरा होता है तो उस समय संविधान और व्यक्ति के अधिकार पर खतरे बढ़ जाते हैं। ऐसे में स्वतंत्र और निर्भीक न्यायपालिका की दरकरार होती होती है । भारत में अभी यही स्थिति है वो भी और गंभीर! क्यों कि यहां एनडीए की सरकार है जो हमेशा चुनावी मोड में रहती है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट  से भी अपेक्षा है और उम्मीद है कि वह अधिक सजग रहे और अपनी स्वतंत्रता को बरकरार रखते हुए निर्भीकता के साथ संविधान और मूल अधिकारों की रक्षा करे। 

अन्त में-

मेरा जस्टिस मे ना लागे दिल !क्यों  ?
दिल पर क्या पड़ गई मुश्किल, हो!
कोई ये तो बता दे  मुझे कहीं वो,
वो तो नहीं हो गया ---????