Politics is more important than the Corona crisis!
लाॅकडाऊन के फेल होने और कोरोना वायरस से बुरी तरह मात खा रही सत्तारूढ़ पार्टी बीजेपी की चुनावी राजनीति पुनः सक्रिय हो गई और सक्रिय हो गये श्री अमित शाह जिन्हे देश के गृहमंत्री होने के बावजूद लाॅकडाऊन के दौरान अधिक देखा-सुना नहीं गया था।उन्होंने ही बिहार में 7 जून 2020 वर्चुअल रैली को संबोधित कर इसकी शुरुआत की!
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इसके फौरन बाद उड़ीसा और बंगाल में ताबड़तोड़ इसी तरह की रैली कर डाली। इस मार्मिक समय में भी ये हड़बड़ाहट यही साबित करती है ये सरकार हमेशा चुनावी मोड में रहती है और एकमात्र प्राथमिकता चुनाव जीतने को देती है । बीजेपी पार्टी और सरकार के लिए देश में प्रतिदिन 10 हजार से अधिक की गति से बढ़ता कोरोना संक्रमण जो अब 3 लाख से पार हो चुका है अब कोई संकट रहा ही नहीं। ऐसा लगता है कि लोगों से हाथ धुलाते-धुलाते केन्द्र सरकार ने इस समस्या से ही अपने हाथ धो लिये  हैं और सारा कुछ  जनता और राज्य सरकारों पर छोड़ दिया है।



ऐसा भी नहीं था लाॅकडाउन में पूरी ही निष्क्रियता थी । उनकी दिल्ली पुलिस इस दरमियान ही चुन-चुन कर सीएए विरोधी आन्दोलनकारियों विशेषतया मुस्लिम समुदाय के लोगों को दिल्ली दंगे का आरोपी बना जेल के भीतर पहुंचाने का अभूतपूर्व कार्य बाखूबी कर रही थी। अपनी प्रसिद्ध एनआरसी वाली क्रोनोलोजी को विस्तार दे देश में भाईचारे और सौहार्द को धता बता देश को विश्व में नार्थ कोरिया वाली   “countries of particular concern” (CPC)   श्रेणी में पहुंचाने वाले और पुलिसियाई  शांति में विश्वास रखने वाले बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष का पंसदीदा विषय चुनाव और सरकार बनाने की राजनीति रही है। इसमें भी इनकी येनकेन प्रकारण वाले महारथ को देखते हुए कुछ लोग चाणक्य को समझे बिना इनकी तुलना उनसे करते हैं!




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इस वर्चुअल रैली का आरंभ ही इस असत्य वचन से किया गया कि यह राजनैतिक संबोधन नहीं है और इसका आसन्न चुनाव से लेना देना नहीं है बल्कि कोरोना से पीड़ित लोगों का दुख दर्द बांटना है । जबकि सभी रैलियों में भाषण के विषय पूरी तरह से  राजनैतिक ही थे और आसन्न चुनावों को समर्पित थे। बिहार में लालू यादव के शासन की याद दिलाई गई और श्री नीतिश कुमार की एनडीए की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदारी को फिर से दुहराया गया।


धारा 370, सर्जिकल स्ट्राइक, सीएए की चर्चा और श्री नरेन्द्र मोदी सरकार के गुण गान किये गए।  इसी संबोधन में श्री नरेंद्र मोदी के हाथों देश की सीमा पूरी तरह सुरक्षित है का दावा किया गया पर न तो लद्दाख में चीन द्वारा बिना लड़े एक बड़े भारतीय भू-भाग(लगभग 60 किलोमीटर ) हड़प लिए जाने की खबर की चर्चा की गई और न ही नेपाल के भारतीय भू-भाग पर दावे की हिमाकत पर कोई जवाब दिया गया।

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लाॅकडाऊन से सर्वाधिक पीड़ित और सरकार द्वारा उपेक्षित प्रवासी मजदूरों  के दुखों पर बातों से मरहम लगाते हुए 1 लाख 70 हजार करोड़ रुपये को 51 करोड़ मजदूरों के खातों में जमा करने की उटपटांग दावे भी कर दिये! इसी तरह के दावे श्री अमित शाह ने एक टीवी इन्टरव्यू में भी किया था जिसमें उन्होंने  41 करोड़ मजदूरों के खाते में 53 हजार करोड़ रूपये में जमा करने की बात कही थी। कमाल है भारत का हर मजदूर करोड़पति बना दिया गया और न तो मजदूरों को पता चला न ही अर्थशास्त्रियों को । ऐसे में मजदूरों के लिए बेकार में हायतौबा मचाये जा रहे हैं देशद्रोही हैं क्या सब?






बंगाल की रैली में धार्मिक पक्षपात पर आधारित कानून सीएए को जोरशोर से उठाना और 1 करोड़ से अधिक घुसपैठिये होने बात करना यह संकेत देता है वहां के विधान सभा चुनाव दिल्ली चुनाव की तरह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के आधार पर लड़े जायेंगे।  घटिया, ओछे,और निम्न स्तर के प्रचार अभियान के मामले में दिल्ली चुनाव 2020 को मात मिल सकती है। यहां दंगे चुनाव से पहले होते हैं या बाद में ये महत्वपूर्ण सवाल होगा। ऐसा न हो तो सबसे अच्छा।



इसी संबोधन में आश्चर्यजनक  रुप से कोरोना पर सरकार की गलतियों को अंशत: स्वीकार करने के साथ ही विपक्ष से ही सवाल पूछ लिया कि वो क्या कर रही थी? अव्वल तो जवाब देने की जिम्मेवारी सरकार की होती है  फिर भी विपक्ष तो जनवरी से ही कोरोना को लेकर सावधान कर रही थी पर केन्द्र सरकार ने सुनी कहां? गरीब लोगों को मुफ्त राशन और प्रवासी मजदूरों को सकुशल वापसी की मांग विपक्ष की ओर से ही आये थे। अभी भी गरीबों को हाथ सीधे कैश के रुप में फौरी राहत देने की मांग विपक्ष ही कर रहा है जिसे सरकार अनसुना कर रही है।






कोरोना से लड़ाई टाली जा सकती है पर सत्ता हासिल करने को टाला नहीं जा सकता ये बात मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के उस  वायरल आडियो से जाहिर होती है जिसमें वे कह रहे हैं कि  मध्यप्रदेश में कमलनाथ की सरकार आलाकमान के कहने पर गिराई गई थी। 23 मार्च 2020 तक बीजेपी सरकार के शपथग्रहण  इंतजार होता है तब कहीं 24 मार्च की रात्रि 12 बजे से लाॅकडाऊन की घोषणा हो पाती है। 
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स्पष्ट है कि चाहे कर्नाटक हो या मध्यप्रदेश, सरकारें अन्दरूनी कलह से नहीं गिरी थी बल्कि सदस्यों के इस्तीफे के प्रलोभन एवं धमकी वाली "शाही तकनीक" से गिरी थी। अब तो इस अलोकतांत्रिक तकनीक का धड़ल्ले से इस्तेेमाल राज्य सभा के चुनाव जीतने में भी किया जा रहा है इस वक्त भी गुजरात और राजस्थान में यही प्रयास हो रहे हैं।
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इस अलोकतांत्रिक तकनीक पर ब्रेक लग जाता यदि सुप्रीम कोर्ट कर्नाटक के स्पीकर श्री रमेश कुमार के उस फैसले को रद्द न करती  जिसमें कहा गया था कि ऐसे विधायक विधानसभा की वर्तमान अवधि में उपचुनाव नहीं लड़ सकते। ऐसे में इन्तजार करना होगा  दलबदल जैसे कानून लाने वाले किसी सच्चे लोकतंत्र में विश्वास करने वाले राजनेता की जो इस शाही कुप्रथा पर भी रोक लगा सके। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक जनता के पास इन प्राकृतिक एवं राजनैतिक दोनों आपदाओं को एक साथ झेलने के अलावे कोई चारा नहीं बचता।