Supreme Court - Question on the dignity of the judge!
भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी एक ऐसी बहुमुखी प्रतिभा हैं जो विश्वस्तरीय सोच रख  उसे स्थानीय स्तर पर लागू करते हैं  यह बयान किसी बीजेपी के नेता या अन्धभक्त ने दी होती तो खास बात न होती परन्तु यह कथन भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर आसीन व्यक्ति का है इसलिए यह खास भी है और खेदजनक भी।
Supreme Court - Question on the dignity of the judge!

 यह बात नई दिल्ली में 21-23  फरवरी 2020 के "अन्तर्राष्ट्रीय न्यायिक सम्मेलन" में माननीय जस्टिस श्री अरुण मिश्रा ने कही थी जो स्वतंत्र न्यायपालिका के गरिमा और  वास्तविक तथ्यों दोनों के प्रतिकूल हैं। पता नहीं जस्टिस श्री अरूण मिश्रा को श्री नरेन्द्र मोदी के नोटबंदी का फैसले में जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था की नींव हिला दी है कौन सी तीक्ष्ण बुध्दि की वैश्विक सोच नजर आ गई थी।


 आज भी जम्मू और कश्मीर में मौलिक अधिकार हनन का प्रश्न हो या फिर सीएए 2019 का वो किस अन्तर्राष्ट्रीय सोच का प्रतिफल है। इन मामलों में अन्तर्राष्ट्रीय सोच तो इनके बिल्कुल खिलाफ है। माननीय को पता होना चाहिए कि इन कार्यों  द्वारा पार्टी के एजेंडे और  संकीर्ण विचारधारा को लागू किया जा रहा है न कि किसी बहुमुखी प्रतिभा द्वारा सर्वहितकारी वैश्विक समझदारी को स्थानीय धरातल पर लाया जा रहा है।

Supreme Court - Question on the dignity of the judge!

जस्टिस श्री अरुण मिश्रा का नाम कई बार सुर्खियों में पहले भी आता रहा है। सबसे पहले 2018 के चार जजों के प्रसिद्ध प्रेस कॉन्फ्रेंस के समय जिसमें कहा गया था कि सुप्रीम कोर्ट में सब ठीक नहीं है और प्रजातंत्र खतरे में है, इसका तात्कालिक कारण स्वर्गीय लोया के केस को जस्टिस श्री अरुण मिश्रा के बेंच में भेजा जाना माना गया था। दुसरा अवसर अक्टूबर 2019 में आया था जब वे भूमि अधिग्रहण कानून के सेक्शन 24(2) की व्याख्या करने वाली उस संवैधानिक पीठ की अध्यक्षता कर रहे थे जो इस संबंध में उनके ही निर्णय का रीव्यू कर रही थी। सोशल मीडिया में  उन्हें  इस पीठ से अलग हो जाने की मांग उठ रही थी पर वे नहीं  माने थे।


 हाल में ही 14 फरवरी 2020 को टेलिकॉम मामले की सुनवाई के दौरान आवेश में की गई उनकी  टिप्पणियों ने भी काफी सुर्खियां बटोरी कि देश में कानून नहीं रह गया है, सुप्रीम कोर्ट को बन्द कर देना चाहिए और इस देश को छोड़ देना ही अच्छा है। पर क्या उस देश को छोड़ने की बात की जा सकती है जिसका नेतृत्व बहुमुखी प्रतिभा का धनी और वैश्विक सोच रखने वाला व्यक्ति कर रहा हो!

Supreme Court - Question on the dignity of the judge!

जस्टिस श्री अरुण मिश्रा के द्वारा प्रधानमंत्री की स्तुति में दिए गए भाषण की अनेक रिटायर्ड जजों, वरिष्ठ वकीलों, राजनेताओं एवं समाज के अन्य प्रबुद्ध लोगों ने तीव्र निंदा की है। इसे अत्यंत खुशामद से भरा आश्चर्यजनक बयान बताया जो सुप्रीमकोर्ट की स्वतंत्र हैसियत पर सवाल खड़ा करता है। कई ने तो यह सुझाव तक दे डाला कि जस्टिस श्री अरुण मिश्रा को उन सभी केसों से खुद को अलग कर लेना चाहिए जिसमें एक पक्षकार सरकार हो।



बीएआई(बार एसोसिएशन आफ इण्डिया) एवं एससीबीए(सुप्रीमकोर्ट बार एसोसिएशन) दोनों संगठनों ने भी जस्टिस श्री अरुण मिश्रा के बयान की आलोचना की। बीएआई  ने अपनी उक्ति में कहा कि  यह अपेक्षित औपचारिक शिष्टाचार नहीं है बल्कि ऐसे बयान सुप्रीम कोर्ट की निष्पक्षता, स्वतंत्रता और जनता का उस पर विश्वास सभी को कम करते हैं।जजों से उम्मीद की जाती है कि संवैधानिक सिध्दांत व कानून के शासन को कायम रखेंगे और इस क्रम में उन्हें कार्यपालिका के विरुद्ध केसों पर निर्णय देने पड़ते हैं।


 ऐसे में जजों का आधारभूत कर्तव्य हो जाता है कि वो कार्यपालिका से समझदारी भरा गरिमापूर्ण दूरी बनाए रखें न केवल न्यायिक आचरण में वरन् जनता की नजर में भी। बीएआई का यह कथन सही है क्योंकि आजकल जब सुप्रीमकोर्ट की विश्वसनीयता पर भी सवाल उठने शुरू हो गए हैं जजों को अपने आचरण एवं वचन को गरिमापूर्ण मर्यादा में रखना चाहिए।