India's growing crisis!


बेशक देश अभी गंभीर संकट से गुजर रहा है! लाॅकडाऊन का चौथा दौर भी समाप्त होने को चला है पर कोरोना संक्रमित की संख्या थमने का नाम नहीं ले रही है बल्कि उफान पर है साथ ही 66 दिनों से जनजीवन थमा हुआ और अस्तव्यस्त है । अर्थ व्यवस्था त्राहिमाम् कर रही है भूखमरी का खतरा मुंह बाये खड़ा है और उस पर से कई राज्यों में टिड्डीयां फसल चौपट कर रही हैं।




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प्रवासी मजदूरों की वापसी की दु:खद दास्तान जारी है अब सड़क या ट्रेन के नीचे नहीं उसके भीतर भी उनके(भूख से) मरने की खबर आ रही है। उन्हें ले जानेवाली ट्रेनें रास्ता भटक रही हैं और सरकार को कोई रास्ता सूझ नहीं रहा है । इतना ही नहीं पिद्दी सा नेपाल बातों की सीमा लांघ रहा है तो जिद्दी चीन वास्तविक सीमा लांघने को उतावला हो रहा है।





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बावजूद इनके हम इस बात लेकर खुश हैं कि किसी Morning Consult नामक अमेरिकी सर्वे ने हमारे प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढ़ जाने का खबर दी है । यदि हम समझते हैं कि इसी बात से भारत की सारी समस्या हल होने वाली है तो हम बड़ी गफलत में है । हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि यही विदेशी मीडिया हमारे प्रधानमंत्री को  "Divider in Chief" कहती है और इन्ही की  USCIRF 2020 रिपोर्ट श्री नरेंद्र मोदी के प्रशासन के कारण भारत की रैंकिंग उत्तर कोरिया वाली "विशेष चिन्ता वाले देशों" की श्रेणी में डालती है।




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हमारे प्रधानमंत्री नि:सन्देह लोकप्रिय हैं तभी तो प्रधानमंत्री हैं और फिर विपदा के वक्त भयभीत जनता का अपने प्रशासक की ओर मुंह ताकना स्वभाविक होता है भले ही वो कैसा भी है? इसलिए संकट के समय के सर्वे सही तसवीर नहीं बतलाते । इस समय महत्वपूर्ण सवाल प्रधानमंत्री की लोकप्रियता का नहीं है बल्कि उन समस्याओं की वास्तविकता का है जिनसे देश अभी जूझ रहा है।






वास्तविकता यह है कि जिस तालाबंदी को लेकर प्रधानमंत्री की लोकप्रियता बढी हैं वो नोटबंदी की तरह असफल हो चुकी है। ये अचरज की बात नहीं है क्योंकि ऐसा नहीं होता तो 66 दिनों की दीर्घ अवधि की तालाबंदी के बावजूद संक्रमण के नित नये रिकॉर्ड नहीं बन रहे होते। अभी तक 173249 के आंकड़ों के साथ हम विश्व के सबसे संक्रमित देशों में आठवें स्थान पर पहुँच चुके हैं । यह स्थान  तालाबंदी के चलते नहीं है बल्कि बावजूद मिला है हम और ऊपर जा सकते हैं क्योंकि अभी तक हमसे ऊपर वाले सातों देश ने हमसे कहीं ज्यादा कोरोना टेस्ट कर रखे हैं।






इसी प्रकार  केन्द्रीय मंत्री श्री रविशंकर प्रसाद का भारत में कोरोना से मृत्यु दर कम होने को कुदरती या ईश्वरीय कृपा मानने की बजाय सरकार की सफलता से जोड़ना भी हास्यास्पद है। बंगलादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान में यह दर भारत से काफी कम, 2% भी नहीं है! ऐसा माने तब तो पाकिस्तान के इमरान खान भारत के प्रधानमंत्री से अधिक कामयाब हैं और जो कोई ऐसा मानते हैं वो इस जानकारी को Morning Consult सर्वे कम्पनी से साझा कर सकते हैं।
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दरअसल लाॅकडाऊन करने में पहले देरी और फिर सिर्फ 4 घंटे की सूचना पर की गई हड़बड़ी ही इसकी असफलता का कारण बन गई। इस हड़बड़ाहट के कारण ही जिस समय लाॅकडाऊन द्वारा कोरोना संक्रमण के चेन( chain) टूटने की प्रतीक्षा किया जा रहा था उसी समय वास्तव में  प्रवासी मजदूरों के रुप में संक्रमण का जाल तैयार हो रहा था। 'ना खाने दूंगा और न जाने दूंगा 'की अघोषित-सी नीति इन मजदूरों को अधिक दिनों तक अपने गांव जाने को रोक नहीं सकी फलतः यह जाल फैलता गया और तालाबंदी की ऐसी की तैसी हो गई जबकि इनकी घर वापसी ने एक ऐतिहासिक मानवीय विपदा का रुप ले लिया। 





सरकारें जिम्मेदारियों का फेंका-फेंकी का  खेल खेलने लगीं। एक समय इन मजदूरों का दुखड़ा सुनने से इंकार कर चुका सुप्रीम कोर्ट ने स्वत: संज्ञान लेकर इन मजदूरों की सही सलामत वापसी  की व्यवस्थायें देकर अपनी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश की है पर उनके देर से आए इस निर्णय पर यही कहा जा सकता है कि "का बरखा जब कृषि सुखाने! "



20 लाख करोड़ रुपये का पैकेज जिसे प्रधानमंत्री ने अपनी 12 मई 2020 राष्ट्रीय बात में कोरोना राहत का गलत नाम दे दिया था उसे 30 मई 2020 जनता के नाम "पाती "में आत्मनिर्भर भारत का पैकेज बतला कर सही किया है। वस्तुतः यह पैकेज फौरी राहत के लिये था ही नहीं बल्कि पहले से तय अर्थ व्यवस्था सुधार के कार्यक्रम थे। गृहमंत्री  सरकार की 6 साल की उपलब्धियों में गरीबों को गैस देने की चर्चा कर रहे हैं पर इस समय जरुरत इन्हें गैस से अधिक कैश देने की है और चर्चा की बजाय खर्चा करने की है। 




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आत्मप्रशंसा से झूठा मनोबल बढता है संकट का समाधान नहीं होता। कोरोना संकट की आड़ में सीएए विरोधियों को साधने से या प्रवासी मजदूरों की समस्या उजागर करने को वालों को गिध्द कहने से अहं की संतुष्टि हो सकती है और राजनीति चमक सकती है पर न तो संक्रमितों की संख्या कम हो सकती है और न ही अर्थव्यवस्था उठ सकती है। क्षुद्र राजनीति से उठ कर समाधान ढूंढने के वास्तविक प्रयास होने चाहिए अन्यथा लोकप्रियता जाने में  देर नहीं लगती!